पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१०

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प्रस्तावना।
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लिये आवश्यक पुस्तक आदि सामग्री पूने से भंगा लेने की अनुमति जय सरकार की मेहरबानी से मिल गई तब, सन् १९१०-११ के जड़काले में (संवत् १९६७ कार्तिक शुक्ल १ से चैत्र कृष्ण ३० के भीतर) इस ग्रन्थ को पाण्डुलिपि ( मसविदा ) मण्डाले के जेहलखाने में पहले पहल लिखी गई। और फिर समयानुसार जैसे जैसे विचार सूलते गये, वैसे वैसे उसमें काट-छाँट होती गई । उस समय, समग्र पुस्तके वहाँ न होने के कारण, कई स्थानों में अपूर्णता रह गई थी । यह अपूर्णता वहाँ से छुटकारा होजाने पर, पूर्ण तो कर ली गई है, परन्तु अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह अन्य सर्वांश में पूर्ण हो गया । क्योंकि नोक्ष और नीति-धर्म के तत्त्व गहन तो हैं ही, साथ ही उनके सम्बन्ध में अनेक प्राचीन और अर्वाचीन पण्डितों ने इतना विस्तृत विवेचन किया है, कि व्यर्थ फैलाव से बच कर,यह निर्णय करना कई वार कठिन हो जाता है कि इस छोटे से अन्य में किन किन बातों का समावेश किया जावे । परन्तु अब हमारी स्थिति कवि की इस अक्ति के अनुसार हो गई है—

यम-सेना की विमल ध्वजा राब 'जरा' दृष्टि में आती है।
करती हुई युद्ध रोगों से देह हारती जाती है ॥

और हमारे सांसारिक साथी भी पहले ही चल बसे हैं । अतएप सव इस गृन्थ को यह समझ कर प्रसिद्ध कर दिया है, कि हमें जो बातें मालूम हो गई है, और जिन विचारों को हमने सोचा है, वे सब लोगों को भी ज्ञात हो जायें; फिर कोई न कोई 'समानधर्मा' अगी या फिर उत्पन हो कर उन्हें पूर्ण कर ही लेगा।

आरम्भ में ही यह कह देना आवश्यक है कि गद्यपि हमें यह मत मान्य नहीं है, कि सांसारिक को को गौण अपवा त्याज्य मान कर ब्रह्मज्ञान और भक्ति प्रभृति निरे निवृत्ति-प्रधान मोक्षमार्ग का ही निरूपण गीता में है; तथापि हम यह नहीं कहते कि मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग का विवेचन भगवद्गीता में बिलकुल है ही नहीं । हमने भी इस ग्रन्य में स्पष्ट दिखला दिया है कि, गीताशास्त्र के अनुसार इरा जगत में प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तव्य यही है कि वह परमेश्वर के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके, उसके द्वारा अपनी बुद्धि को, जितनी हो सके उतनी, निर्मल और पवित्र कर ले । परन्तु यह कुछ गीता का मुरग विषय नहीं है । युद्ध के आरम्ग में अन इस करोग-गोह मे फँगा था कि युद्ध परना क्षत्रिय का धर्म भले ही हो, परन्तु कुलक्षय सादि घोर पानक होने से जो युद्ध मोक्ष-प्राप्तिरूप आत्म-कल्याण का ना कर दालेगा, उस युद्ध को करना चाहिये अथवा नहीं ! अतएव हमारा यह अभि- पाप है कि लोह को दूर करने के लिये शुद्ध वेदान्त के माधार पर फर्म अहर्द

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☆ नाराष्ट्र फविपर्य नोरोपन्त को आर्या का भाव।