पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१०३

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । धारणादममित्याहुः धमों घारयते प्रजाः । यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः ॥ "धर्म शब्द ध ( धारण करना) धातु से यना है । धर्म से ही सय प्रजा बँधी हुई है। यह निश्चय किया गया है कि जिससे (सब प्रजा का) धारण होता है वही धर्म है "(मभा. कर्ण. ६६. ५६)। यदि यह धर्म छूट जाय तो समझ लेना चाहिये कि समाज के सारे बंधन भी टूट गये; और यदि समाज के बंधन टूटे, तो आकर्षणशक्ति के विना श्राकारा में सूर्यादि ग्रहमालामों की जो दशा हो जाती है, अथवा समुद्र में मल्लाह के बिना नाव की जो दशा होती है, ठीक वही दशा समाज की भी हो जाती है। इसलिये उक्त शोचनीय अवस्था में पड़ कर समाज को नाश से बचाने के लिये व्यासजी ने कई स्थानों पर कहा है कि, यदि अर्थ या द्रव्य पाने की इच्छा हो तो " धर्म के द्वारा" अर्थात समाज की रचना को न विगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी “धर्म से ही" करो। महाभारत के अन्त में यही कहा है कि:- ऊर्ध्वबाहुविरौम्येपः न च कश्चिन्छृणोति माम् । धर्मादर्थश्व कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते ॥ "अरे ! भुजा उठा कर मैं चिल्ला रहा हूँ (परन्तु ) कोई भी नहीं सुनता ! धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है (इसलिये) इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो ?" अय इससे पाठकों के ध्यान में यह वात अच्छी तरह जम जायगी कि महाभारत को जिस धर्म-सृष्टि से पाँचवाँ वेद अथवा 'धर्मसंहिता' मानते हैं, उस धर्मसंहिता' शब्द के 'धर्म' शब्द का मुख्य अर्थ क्या है। यही कारण है कि पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा दोनों पारलौकिक अर्थ के प्रतिपादक ग्रन्यों के साथ ही, धर्मग्रन्य के नाते से, " नारायणं नमस्कृत्य" इन प्रतीक शब्दों के द्वारा, महाभारत का भी समावेश ब्रह्मयज्ञ के नित्यपाठ में कर दिया गया है। धर्म-अधर्म के उपर्युक्त निरूपण को सुन कर कोई यह प्रश्न करे कि यदि तुम्हें समाज-धारण, 'और दूसरे प्रकरण के सत्यानृतविवेक में कथित : सर्वभूतहित, ये दोनों तत्त्व मान्य हैं तो तुम्हारी दृष्टि में और आधिभौतिक दृष्टि में भेद ही क्या है ? क्योंकि, ये दोनों तत्व वायतः प्रत्यक्ष दिखनेवाले और आधिभौतिक ही हैं । इस प्रश्न का विस्तृत विचार अगले प्रकरणों में किया गया है । यहाँ इतना ही कहना बस है कि, यद्यपि इमको यह तय मान्य है कि समाज-धारणा ही धर्म का मुख्य बाह्य उपयोग है, तथापि हमारे मत की विशेषता यह है कि वैदिक अथवा अन्य सब धर्मों का जो परम उद्देश आत्म-कल्याण या मोक्ष है, उस पर भी इनारी सृष्टि बनी है। समाज-धारणा को लीजिये, चाहे सर्व- भूतहित ही को; यदि ये बायोपयोगी तत्त्व हमारे आत्म-कल्याण के मार्ग में बाधा डालें तो हमें इनकी ज़रूरत नहीं । हमारे आयुर्वेद अन्य यदि यह प्रतिपादन करते हैं .