कर्मयोगशास्त्र । 'धर्म' शब्द की दूसरी एक और न्याया प्राचीन ग्रन्यों में दी गई है। उसका भी यहाँ थोड़ा विचार करना चाहिये । यह प्यारया मीमांसकों को है" चोदना लक्षणो- अर्थो धर्मः" (जैसू. १.१.२)। किसी प्राधिकारी पुरुप का यह कहना अथवा प्राज्ञा करना कि तू समुक काम कर सथवा मत कर" 'चोदना' यानी प्रेरणा है। जब तक इस प्रकार कोई प्रबंध नहीं कर दिया जाता तब तक कोई भी काम किसी को भी करने की स्वतंत्रता होती है। इसका आशय यही है कि पहले पहल, निबंध या प्रबंध के कारण, धर्म निर्माण सा। धर्म की यह व्याख्या, कुछ संश में, प्रसिद्ध अंग्रेज़ अन्यकार डॉग्स के मत सं. मिलती है। असभ्य तथा जंगली अयस्था में प्रत्येक मनुष्य का पाचरण, समय समय पर उत्पन्न होनेवाली मगायत्तियों की प्रपलता के अनुसार टुसा परता है । परन्तु धीरे धीरे कुछ समय के बाद यह मानूम होने लगता है कि इस प्रकार का मनमाना याच श्रेयस्कर नहीं है और यह विश्वास होने लगता है कि इंद्रियों के स्वाभाविक व्यापारी की कुछ मर्यादा निश्चित करके उसके अनुसार बाप करने ही में सब लोगों का मल्याग । तर प्रत्येक मनुष्य देखी मर्यादाओं का पालन, कायदे के तौर पर, करने लगता , जो शिष्टाचार से, अन्य रीति से: सुटढ़ हो जाया करती हैं। जय इस प्रकार की मर्यादाओं की संख्या पहुत बढ़ जाती है तब इन्धों का एक शान बन जाता है। पूर्व समय में विवाद- प्यवस्था का प्रचार नहीं था। पहले पहल उसे पतके ने चलाया। और, पिछले प्रकरण में बतलाया गया है कि शुक्राचार्य ने मदिरापान को निपिव ठहराया। यह न देख कर, कि इन मयांदात्रों को नियुक्त करने में श्वेतकेतु अथवा शुक्राचार्य का क्या क्षेतु था, केवल किसी एक बात पर ध्यान दे कर कि इन मर्यादाओं के निश्चित करने का काम या कत्तय इन लोगों को करना पड़ा, धर्म शन्द्र की "घोदना लतगोऽर्थो धर्मः" व्याख्या बनाई गई है। धर्म भी हुआ तो पहले उसका महत्व किसी प्यनि के ध्यान में साता है और तभी उसकी प्रवृत्ति होती है। 'खामो-पिसो चैन करी ये बात किसी को सिसालानी नहीं पड़ती; क्योंकि ये इन्द्रियों के स्वाभा- विक धर्म ही है। मनुजी ने जो कहा है कि “ग मांसभक्षणो दोपो न मये न घ मैथुने" (मनु. ५.५६) अन मांस भक्षण. करना प्रथया मरापान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म-विन्द दोष नहीं है-उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य ही के लिये नहीं; किन्तु शागिमान के लिये स्वाभाविक है-"प्रवृत्ति- रेषा भूतानाम् ।" समाज-धारगा के लिये अर्थात सब लोगों के सुख के लिये इस स्वाभाविक आचरगा का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। महाभारत (शां. २६५.२९) में भी कहा है:- आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतस्पशुभिर्नराणाम् । धी हि तेषामधिको विशेषो धर्मण होनाः पशुभिः समानाः ॥ अर्थात् " आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिये, एक ही
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