गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। के पहले, जिस समय यह सामान्य प्रश्न ही महत्त्व का समझा जाता था कि 'कर्म करना चाहिये, अथवा न करना चाहिये,' उस समय गोता यतलाई गई है। इस कारण उसका बहुन सा अंश अव कुछ लोगों को अनावश्यक प्रतीत होता है । और इस पर भी निवृत्तिमाय टीकाकारों की लापा-पोती ने तो गीता के कर्मयोग के विवेचन को आजकल बहुनरों के लिये दुबोध कर डाला है। इसके अति- रिक कुछ नये विद्वानों को यह समझ हो गई है कि, अर्वाचीन काल में आधिभौतिक ज्ञान की पश्चिमी देशों में जैसी कुछ वाढ हुई है, उस बाढ़ के कारण अध्यात्मशास्त्र के आधार पर किये गये प्राचीन कर्मयोग के विवेचन वर्तमान काल के लिये पूर्णतया उपयुक्त नहीं हो सकते । किन्तु यह समझ ठीक नहीं है; इस समझ की पाल दिखलाने के लिये गीतारहस्य के विषेचन में, गीता के सिद्धान्तों की जोड़ के हो, पश्चिमी पण्डितों के सिद्धान्त भी हमने स्थान-स्थान पर संक्षेप में दे दिये हैं। वस्तुतः गीता का धन- अधर्म-विवेचन इस तुलना से कुछ अधिक मुड़ नहीं हो जाता; तथापि अर्वाचीन कालीन आधिभौतिक शान्नों की अभूतपूर्व वृद्धि से जिनकी दृष्टि कसाबीध में पढ़ गई है; अथवा जिन्हें भाजल की एकदेशीय शिक्षापद्धति के कारण आधिभौतिक अर्थात् बाह्य दृष्टि से ही नीतिशास्त्र का विचार करने की आदन पढ़ गई है, उन्हें इस तुलना से इतना तो स्पष्ट ज्ञात हो जायगा कि मोक्ष-धर्म और नीति दोनों विषय आधिौतिक ज्ञान के परे के हैं; और, वे यह भी जान जायेंगे कि इसी से प्राचीन काल में हमारे शास्त्रकारों ने इस विषय में जो सिद्धान्न स्थिर किये हैं, उनके मागे मानवी ज्ञान की गति अब तक नहीं पहुंच पाई है; यही नहीं किन्तु पश्चिमी देशों में भी अध्यात्म-वृष्टि से इन प्रश्नों का विचार अब तक हो रहा है और इन अध्यात्मिक अन्यकारों के विचार गीताशात्र के सिद्धान्तों से कुछ अधिक मिन नहीं है। गीता- रहस्य के भिन्न भिन्न प्रकरणों में जो तुलनात्मक विवेचन हैं, उनसे यह बात स्पष्ट हो जायगी । परन्तु यह विषय अत्यन्त व्यापक है, इस कारण पश्चिमी पण्डितों के मतों का जो सारांश विभिन्न स्थलों पर हम ने दे दिया है, उसके सम्बन्ध में यहाँ इतना बतला देना आवश्यक है कि गीतार्थ को प्रतिपादन करना हो हमारा मुख्य काम है, अतएव गीता के सिद्धान्तों को प्रमाण मान कर पश्चिमी मतों का उल्लेख हमने केवल यही दिखलाने के लिये किया है कि, इन सिद्धान्तों से पश्चिमी नीतिशास्त्रज्ञों अथवा पण्डितों के सिद्धान्तों का कहाँ तक मेल है। और, यह काम हमने इस ढंग से किया है कि जिस में सामान्य मराठी पाटकों को उनका अर्थ समझने में कोई कठि- नाई न हो । अब यह निर्विवाद है कि इन दोनों के बीच जो सूक्ष्म भेद है, और ये हैं भी बहुत-अथवा इन सिद्धान्तों के जो पूर्ण उपपादन या विस्तार हैं, उन्हें जानने के लिये मूल पश्चिमी ग्रन्थ ही देखना चाहिये । पश्चिमी विद्वान् कहते हैं कि
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