पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१३३

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पाँचवाँ प्रकरण। सुखदुःखविवेक । सुखमात्यंतिक यात् बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम् । गीता ६.२१॥ हमारे शास्त्रकारों को यह सिद्धान्त मान्य है कि प्रत्येक मनुष्य सुख प्राप्ति के लिये, प्राप्त-सुख की वृद्धि के लिये, दुःख को टालने या कम करने के लिये ही लदैव प्रयत्न किया करता है । भृगुजी भरद्वाज से शान्तिपर्व (मभा. शां. १६०.६) में कहते हैं कि " इह खलु अमुम्मिश्च लोके वस्तुप्रवृतयः सुखार्थमभि- धीयन्ते । न यतः परं त्रिवर्गफले विशिष्टतरमस्ति" अयांत इस लोक तथा पर- लोक में सारी प्रवृत्ति केवल मुख के लिये है और धर्म, अर्थ एवं काम का इसके, अतिरिक्त कोई अन्य फल नहीं है। परन्तु शास्त्रकारों का कथन है कि मनुष्य, यह न समझ कर कि सच्चा मुख किसमें है, मिथ्या सुख ही को सत्य सुख मान बैठता है। और इस आशा से कि बाज नहीं तो कल सुख अवश्य मिलेगा, वह अपनी आयु के दिन व्यतीत किया करता है । इतने में, एक दिन मृत्यु के झपेटे में पड़ कर वह इस संसार को छोड़ कर चल बसता है ! परतु उसके उदाहरण से अन्य लोग सावधान होने के बदले उसीका अनुकरण करते रहते हैं। इस प्रकार यह भव-चक्र चल रहा है, और कोई मनुष्य सच्चे और नित्य सुख का विचार नहीं करता ! इस विषय में पूर्वी और पश्चिमी तत्वज्ञानियों में बड़ा ही मतभेद है कि यह संसार केवल दुःखमय है, या सुखप्रधान अथवा दुःखप्रधान है । परन्तु इन पक्षवालों में से सभी को यह बात मान्य है, कि मनुष्य का कल्याण दुःख का अत्यन्त निवारण करके अत्यन्त सुख प्राप्ति करने ही में है। 'सुख' शब्द के बदले प्रायः ‘हित,' श्रेय ' और 'कल्याण ' शब्दों का अधिक उपयोग हुआ करता है; इनका भेद भागे बतलाया जायगा । यदि यह मान लिया जाय कि । सुख' शब्द में ही सब प्रकार के सुख और कल्याण का समावेश हो जाता है, तो सामा- न्यतः कहा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य का प्रयत्न केवल सुख के लिये हुआ करता है। परंतु इस सिद्धान्त के आधार पर सुख-दुःख का जो लक्षण महा- भारतान्तर्गत पराशरगीता (म. भा. शां२६५.२७ ) में दिया गया है, कि यदिष्टं तत्सुखं प्राहुः द्वेप्यं दुःखमिहेप्यते " जो कुछ हमें इष्ट है वही • जो केवल बुद्धि से ग्राम हो और द्रियों से परे हो, उसे आत्यन्तिक सुख कहते हैं। «