सुखदुःखविवेक। । " इसके सिवा द्रौपदी ने सत्यभामा को यह उपदेश दिया है कि- सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यं दुःखेन साध्वी लभते सुखानि । अर्थात् “ सुख से सुख कभी नहीं मिलता; साध्वी स्त्री को सुख-प्राप्ति के लिये दुःख या कष्ट सहना पड़ता है" (ममा. वन. २३३. ४); इससे कहना पड़ेगा कि यह उपदेश इस संसार के अनुभव के अनुसार सत्य है । देखिये, यदि जामुन किसी के ओंठ पर भी धर दिया जाय, तो भी उसको खाने के लिये पहले मुँह खोलना पड़ता है और यदि मुंह में चला जाय तो उसे खाने का कष्ट सहना ही पड़ता है! सारांश, यह यात सिद्ध है कि दुःख के बाद सुख पानेवाले मनुष्य के सुखास्वादन में, और हमेशा विपयोपभोगों में ही निमग्न रहनेवाले मनुष्य के सुखास्वादन में बहुत भारी अंतर है। इसका कारण यह है, कि हमेशा सुख का उपभोग करते रहने से सुख का अनुभव करनेवाली इंद्रियाँ भी शिथिल हो जाती हैं। कहा भी है कि- प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते । काष्ठान्यपि हि जायन्ते दरिद्राणां च सर्वशः ।। अर्थात् “ श्रीमानों में सुस्वादु प्राको सेवन करने की भी शक्ति नहीं रहती, परन्तु गरीय लोग काठ को भी पचा जाते हैं" (मभा. शां. २८, २९) । अतएव जब कि हम को इस संसार के ही व्यवहारों का विचार करना है तय कहना पड़ता है कि इस प्रश्न को अधिक हल करते रहने में कोई लाभ नहीं कि बिना दुःख पाये हमेशा सुख का अनुभव किया जा सकता है या नहीं ? इस संसार में यही क्रम सदा से देख पड़ रहा है कि, " सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् " (वन. २६०. HS. शां. २५, २३) अर्थात् सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख मिला ही करता है । और महाकवि कालिदास ने भी मेघदूत (मे. ११४) में वर्णन किया है- कत्यैकांत सुखमुपनतं दुःखमेकांततो था । नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चकनेमिक्रमेण ॥ " किसी की भी स्थिति हमेशा सुखमय या इमेशा दुःखमय नहीं होती । सुख- दुःख की दशा,पहिये के समान ऊपर और नीचे की ओर इमेशा बदलती रहती है।" अव चाहे यह दुःख हमारे सुख के मिठास को अधिक बढ़ाने के लिये उत्पन्न हुआ हो और चाहे इस प्रकृति के संसार में उसका और भी कुछ उपयोग होता हो, उक्त अनुभव-सिद्ध मम के बारे में मतभेद हो नहीं सकता । हाँ, यह वात कदाचित असम्भव न होगी कि कोई मनुष्य हमेशा ही विषय-सुख का उपभोग.किया करे और उससे उसका जी भी न ऊयेपरंतु इस कर्मभूमि (मृत्युलोक या संसार ) में यह बात अवश्य असम्भव है कि दुःख का बिलकुल नाश हो जाय और हमेशा सुख ही सुख का अनुभव मिलता रहे। यदि यह बात सिद्ध है कि संसार केवल सुखमय नहीं है, किंतु वह सुख-दुःखा- मक है। तो अब तीसरा प्रश्न आप ही आप मन में पैदा होता है, कि संसार में
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