पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५

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RE गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । , विस्तरैः "-एक गीता का ही पूरा पूरा अध्ययन कर लेना यस है; शेष शास्त्रों के कोरे फैलाव से क्या करना है? यह यात कुछ झूठ नहीं है । अतएव जिन लोगों को हिन्दूधर्म और नीतिशास्त्र के मूलतत्वों से परिचय कर लेना हो, उन लोगों से हम सविनय किन्तु आग्रहपूर्वक कहते हैं, कि सव से पहले आप इस अपूर्व अन्य का अध्ययन कीजिये । इसका कारण यह है कि क्षर-अक्षर-सृष्टि का और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विचार करनेवाले न्याय, मीमांसा, उपनिपद् और वेदान्त आदि प्राचीन शास्त्र उस समय, जितनी हो सकती थी उतनी, पूर्ण अवस्था में आचुके थे; और इसके बाद हो वैदिक धर्म को ज्ञानमूलक भक्तिप्रधान एवं कर्मयोगविषयक अन्तिम स्वरूप प्राप्त हुआ; तथा वर्तमान काल में प्रचलित वैदिक धर्म का मूल ही गीता में प्रतिपादित होने के कारण हम कह सकते हैं कि संक्षेप में किन्तु निस्सन्दिग्ध रीति से वर्तमानकालीन हिन्दूधर्म के तत्वों को समझा देनेवाला, गीता की जोड़ का दूसरा प्रन्य, संस्कृत- साहित्य में है ही नहीं। उल्लिखित वक्तव्य से पाठक सामान्यतः समझ सकेंगे कि गीतारहस्य के विवेचन का कैसा क्या ढंग है । गीता पर जो शांकरभाष्य है उसके तीसरे अध्याय के आरम्भ में पुरातन टीकाकारों के अभिप्रायों का उल्लेख है; इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि गीता पर पहले कर्मयोगप्रधान टीकाएँ रही होंगी । किन्तु इस समय ये टीकाएँ उपलब्ध नहीं हैं; अतएव यह कहने में कोई क्षति नहीं कि, गीता का कर्मयोग-प्रधान और तुलनात्मक यह पहला ही विवेचन है। इसमें कुछ श्लोकों के अर्थ, उन अथों से भिन्न हैं, कि जो आजकल की टीकाओं में पाये जाते हैं; एवं ऐसे अनेक विषय भी वतलाये गये हैं कि जो अब तक की प्राकृत रीकाओं में विस्तार सहित कहीं भी नहीं थे। इन विषयों को और इनकी उपपत्तियों को यद्यपि हमने संक्षेप में ही बतलाया है, तथापि यथाशक्य सुस्पष्ट और सुवोध रीति से, वतलाने के उद्योग में हमने कोई वात उठा नहीं रखी है । ऐसा करने में यद्यपि कहीं कहीं द्विरुति हो गई है, तो भी हमने उसकी कोई परवा नहीं की; और जिन शब्दों के अर्थ अब तक भाषा में प्रचलित नहीं हो पाये हैं, उनके पर्याय शब्द उनके साथ ही साथ अनेक स्थलों पर दे दिये हैं। इसके अतिरिक्त, इस विषय के प्रमुख प्रमुख सिद्धान्त सारांशरूप से स्थान-स्थान पर, उप- पादन से पृथक् कर, दिखला दिये गये हैं । फिर भी शास्त्रीय और गहन विषयों का विचार, थोड़े शब्दों में, करना सदैव कठिन है और इस विषय की भाषा भी अभी स्थिर नहीं हो पाई है । अत: हम जानते हैं कि श्रम से, दृष्टि दोष से अथवा अन्यान्य कारणों से हमारे इस नये ढंग के विवेचन में कठिनाई, दुर्बोधता, अपूर्णता और अन्य कोई दोष रह गये होंगे । परन्तु भगवद्गीता पाठकों से कुछ अपरिचित