पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१६९

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१३० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । लेते हैं उस पर, इथियार उठाना निंद्य मानते हैं किन्तु बड़े बड़े सभ्यपश्चिमी राष्ट्र भी अपने पड़ोसी राष्ट्र का वध करना स्वदेशभक्ति का लक्षण समझते हैं। यदि सदस- द्विवेचन-शक्तिरूप देवता एक ही है तो यह भेद क्यों माना जाता है ? और यदि यह कहा जाय कि शिक्षा के अनुसार अथवा देश के चलन के अनुसार सदसद्विवेचन- शक्ति में भी भेद हो जाया करते हैं, तो उसकी स्वयंभू नित्यता में बाधा आती है। मनुष्य ज्यो ज्यों अपनी असभ्य दशा को छोड़ कर सभ्य बनता जाता है, न्यो त्यों उसके मन और बुद्धि का विकास होता जाता है और इस तरह बुद्धि का विकास होने पर, जिन वातों का विचार वह अपनी पहली असभ्य अवस्था में नहीं कर सकता था, उन्हीं यातों का विचार अव वह अपनी सभ्य दशा में शीघ्रता से करने लग जाता है। अयवा यह कहना चाहिये कि, इस प्रकार बुद्धि का विकसित होना ही सभ्यता का लक्षण है। यह, सभ्य अथवा सुशिक्षित मनुष्य के इन्द्रियनिग्रह का परिणाम है, कि वह औरों की वस्तु को ले लेने या माँगने की इच्छा नहीं करता। इसी प्रकार मन की वह शक्ति भी, जिससे बुरे-मले का निर्णय किया जाता है, धीरे धीरेबढ़ती जाती है, और अब तो कुछ कुछ बातों में वह इतनी परिपक्क हो गई है कि किसी किसी विषय मॅकुच विचार किये बिना ही हम लोग अपना नैतिक निर्णय प्रकट कर दिया करते हैं। जब हमें आँखों से कोई दूर या पास की वस्तु देखनी होती है तव आँखों की नसों को उचित परिमाण से खींचना पड़ता है, और यह क्रिया इतनी शीघ्रता से होती है कि हमें उसका कुछ बोध भी नहीं होता । परन्तु क्या इतने ही से किसी ने इस बात की उपपत्ति को निरुपयोगी मान रखा है? सारांश यह है कि, मनुष्य की वुद्धि या मन सब समय और सब कामों में एक ही है। यह वात यथार्थ नहीं कि काले-गोरे का निर्णय एक प्रकार की वृद्धि करती है और बुरे-भले का निर्णय किसी अन्य प्रकार की बुद्धि से किया जाता है । केवल अन्तर इतना ही है कि किसी में बुद्धि कम रहती है और किसी की अशिक्षित अथवा अपरिपक्क रहती है । उक्त भेद की ओर, तथा इस अनुभव की ओर भी उचित ध्यान दे कर कि किसी काम को शीव्रतापूर्वक कर सकमा केवल आदत या अभ्यास का फल है, पश्चिमी आधिभौतिक- वादियों ने यह निश्चय किया है कि, मन की स्वाभाविक शक्तियों से परे सदस- द्विचारशक्ति नामक कोई भिन्न स्वतन्त्र और विलक्षण शक्ति के मानने की आवश्यकता नहीं है। इस विषय में, हमारे प्राचीन शास्त्रकारों का अन्तिम निर्णय भी पश्चिमी आधि. भौतिकवादियों के सदृश ही है । वे इस बात को मानते हैं कि स्वस्थ और शान्त अन्तस्करण से किसी भी बात का विचार करना चाहिये । परन्तु उन्हें यह बात मान्य नहीं कि, धर्म-अधर्म का निर्णय करनेवाली बुद्धि अलग है और काला-गोरा पहचानने की बुद्धि अलग है। उन्होंने यह भी प्रतिपादन किया है कि, मन जितना सुशिक्षित होगा उतना ही. वह भला या तुरा निर्णय कर सकेगा, अतएव मन को सुशिक्षित करने का प्रयत्न प्रत्येक को दृढ़ता से करना चाहिये । परन्तु वे इस