पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । हैं एवं पहले और वर्तमान समय में गीता के जो भाषानुवाद हुए हैं, उनसे हमें इस अन्य को लिखते समय अन्यान्य वातों में सदैव ही प्रसंगानुसार थोड़ी पहुत सहायता मिली है; एतद हम उन सब के अत्यन्त म्हणी है। इसी प्रकार उन पशिनी पण्डितों का भी उपकार मानना चाहिये कि जिनके ग्रन्थों के सिद्धान्तों का हमने त्यान-स्थान पर उल्लेख किया है। और तो क्या, यदि इन सब प्रन्यों की सहायता न मिली होती, तो यह ग्रन्थ लिया जाता या नहीं इसमें सन्देह ही है । इसी से हमने प्रस्तावना के आरम्भ में ही साधु तुकाराम का यह पाश्य लिश दिया है-" सन्तों की उच्छिष्ट उक्ति है मेरी वानी । " सदा सर्वदा एक सा उपयोगी होनेवाला अर्थात् त्रिकाल अवाधित जो ज्ञान है, उसका निरूपण करनेवाले गीता जैसे अन्य से काल भेद के अनुसार मनुष्य को नवीन नवीन स्मृति प्रात हो, तो इसमें कोई आर्य नहीं है, क्योंकि ऐसे व्यापक अन्य का तो यह धर्म ही रहता है। परन्तु इतने ही से प्राचीन पण्डितों के वे परिश्रम कुछ व्ययं नहीं हो जाते कि जो उन्होंने उस ग्रन्थ पर किये हैं। पश्चिमी पण्डितों ने गीता के जो जगपाद अंग्रेजी चार जर्मन प्रभृति यूरोप की भाषाओं में किये हैं, उनके लिय भी यहीं न्याय उपयुज होता है। ये अनुवाद गीता की प्रायः प्राचीन टीकाओं के आधार से किये जाते हैं। फिर भी कुछ पश्चिमी पण्डितों ने स्वतन्त्र रीति से गीता के अर्थ करने का उद्योग आरम्भ कर दिया है। परन्तु सच्चे (कन-) योग का तत्त्व अथवा वैदिक धार्मिक सम्प्रदायों का इतिहास भली भाँति समझ न सकने के कारण या यहिरंग परीक्षा पर ही उनकी विशेष रुचि रहने के कारण अथवा ऐसे ही और कुछ कारणों से इन पहिला परितों के ये विवेचन अधिकतर अपूर्ण और कुछ कुछ स्थानों में तो सर्वथा भ्रामक और भूलों से भरे पड़े हैं। यहाँ पर पश्चिमी पण्डितों के गीता-विषयक अन्यों का विस्तृत विचार करने अथवा उनकी जाँच करने की कोई बापस्यस्ता नहीं है । ल्होंने जो प्रमुख प्रश्न उपस्थित किये हैं, उनके सम्बन्ध में हमारा जो वक्तव्य है यह इस अन्य के परिशिष्ट प्रकरण में है । किन्तु यहाँ गीताविषयक उन अंग्रेज़ी संखों का उदेश कर देना उचित प्रतीत होता है कि जो इन दिनों हमारे देखने में आये हैं। पहला लेख मि० बुक्स का है । नि० बुवस थिमासपिल्ट पन्य के हैं, दन्होंने अपने गीता- विषयक अन्य में सिद्ध किया है कि भगवहीता कर्मयोग-प्रधान है- और ये अपने व्याख्यानों में भी इसी मत को प्रतिपादन किया करते हैं । दूसरा लेख नद्रास के मि० एम्. राधाकृष्गम् का है; यह छोटे से निबन्ध के रूप में, अमेरिका के साथ- राष्ट्रीय नीतिशास्त्र सम्बन्यो त्रैमासिक ' में प्रकाशित हुआ है (जुलाई १९११)। इसमें आत्मस्वातन्त्र्य और नीतिधर्म, इन दो पिपयों के सम्बन्ध से गीता और कान्ट की समता दिखालाई गई है। हमारे मत से यह साम्य इससे भी नहीं अधिक व्यापक