पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२०४

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कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार। पुरुष को छोड़ देती है ? कुछ लोगों की समझ में यह प्रभ वैसा ही निरर्थक प्रतीत होगा जैसा यह प्रक्ष कि, दुलहे के लिये दुलहिन ऊंची है या दुनहिन के लिये दुलहा ठिंगना है। क्योंकि, जब दो घस्नुभों का एक दूसरे से पियोग होता है तय हम देखते हैं.फि दोनों एक दूसरे को छोड़ देती है, इसलिये ऐसे प्रश का विचार करने से कुछ लाभ नहीं है, कि किस किसको छोड़ दिया परन्तु, कात्र प्राधिक सोचने पर मालूम हो जायगा कि सांग्य-धादियों का उक प्रश्न, उनकी रष्टि से अयोग्य नहीं है। सापयशास के अनुसार 'पुरप' निर्गुण, अकती और उदासीन है, इसलिये ताव-टि से "छोड़ना" या "पफड़ना झियानों का फत्ता पुरुप नहीं हो सफता (गी. १३.३१, ३२) सलिये सांख्य-यादी कहते हैं, कि प्रकृति ही पुरुष' को छोड़ दिया करती है, अर्थात वही पुरुष' से अपना छुटकारा या मुक्ति कर क्षेती है, क्योंकि फर्तृत्व-धर्म प्रकृति ही का है (सां. का.६२ और गी. १३.३४)। सारांश यह है कि. मुकि नाम की ऐसी कोई निराजी सवस्था नहीं जो 'पुरुष' फो कहीं बाहर से प्राप्त हो जाती हो; अघया यह काहिये कि यह 'पुरुष' की मूल और स्वाभाविक स्थिति से कोई भिम स्थिति भी नहीं है। प्रकृति और पुरुष में वैसा ही संबंध है जैसा कि घास के बाहरी हिजफे बार अंदर के गूदे में रहता है या जैसा पानी और उसमें रहनेवाली मदली में । सामान्य पुरुष प्रकृति के गुगों से मोहित हो जाते हैं और अपनी इस स्वाभाविक भिन्नता को पहचान नहीं सकते; इसी कारण वे संसार-चक में फंस रहते हैं। परन्तु, जो इस निशता को पहचान लेता है, पर मुक्त की। महाभारत (शां. १६४. ५८, २५८. ११, और ३०६-३०८) में लिखा है कि ऐसे ही पुरुप को "ज्ञाता" या "शुद्ध" और "कृत- कृत्य " कहते हैं। गीता के इस या " एन युद्ध्या युद्धिमान स्यात् (गी. १५. २०) मैं बुद्धिमान् शब्द का भी यही भय है। अध्यात्मशास की दृष्टि से मान का सणा परूप भी यही ई (पे. सू. शां.भा. १.१.४)। परन्तु सांत्यपादियों की अपेक्षा अद्वैत वेदान्तियों का विशेष कपन यह है कि, आत्मा मूल ही में परमया- स्वरूप है और जय यह शपने मूल स्वरूप को सात परमा को पहचान जेता है तब वही उसकी मुक्ति है। ये लोग यह कारगा नहीं पतनाते कि पुरष निस- गतः 'फेयल' है। सांख्य और वेदान्त का यह भेद अगले प्रकरण में स्पष्ट रीति से बतलाया जायगा। यद्यपि प्रत पेदान्तियों को सांय-वादियों की यह पात मान्य है, कि पुरुष (आत्मा) निगुंगा, उदासीन और सकता है। तथापि घे लोग, सांख्यशाख की 'पुरुष'-सम्बन्धी इस दूसरी कस्पना को नहींमागरो कि एक ही प्रकृति को देखने चाले (साथी) स्वतंत्र पुरुष मूल में ही असंख्य हैं (गी. ८.४; १३, २०-२२; ममा. शां. ३५१, पौर वेस. शामा. २.१.१ देखो) पेदान्तियों का कहना है कि उपाधि-मेद के कारण सय जीव भिल भित मालूम होते हैं परंतु वस्तुतः सब नाही है। सांस्य-वादियों का मत है कि, जम हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य का जन्म,