पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२२५

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१८६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । यदीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः" (वता. ४,५) अर्शन लाल (मजोरूप), सफेद (पल- रूप) और काले (पृथ्वी रूप) रंगों की (प्रयांन तीन तत्यों की) एक सजा (यकरी) से नाम-रूपात्मक प्रजा (दृष्टि) उत्पन्न हुई है। प्रोग्योपनिषद के छठये अध्याय में श्वेतकेतु और उसके पिता का मंवाद है । संवाद के प्रारम्भ ही में शतकेतु के पिता ने स्पष्ट कह दिया है कि, " अरे! इस जगन् के प्रारम्भ में कमेवाद्वितीय सत् ' के अतिरिक्त, प्रर्यान नहीं तहाँ सय एक ही और नित्य परमल के प्रातिरिक, और कुछ भी नहीं था। जो प्रसन् (अयांत नहीं है, उससे सन् कसे उत्पस हो सकता है? अतएव, आदि में सर्वत्र सन्धी व्यात या । इसके बाद उसे अनेक अर्यात विविध होने की इच्छा हुई और उससे प्रमशः सूक्ष्म तेज (पति), पाप (पानी) और अना (पृथ्वी) की उत्पत्ति सुई। पथात इन तीन तायों में ही जीयरूप से परमल का प्रवेश होने पर उनके विमुत्करण से जगन् की अनेक नाम-रूपात्मक वस्तुएं निर्मित हुई । त्यूल अग्नि, सूर्य, या बिजुटता की ज्योति ने जो लाल (लोहित) रंग दे यह सूक्ष्म तेजोरूपी मूलतत्व का परिणाम है, जो सफेद (शुभ) रंग है वह सूदम पाप-ताप का परिणाम, धीर जो पा] (काला) रंगई यह सूक्ष्म पृथ्वी-तत्व का परिणाम है । इसी प्रकार, मनुन्य जिस सस का सेवन करता है उसमें भी-तूम तेज, सूक्ष्म पाप और सूदम स (पच्ची), यही तीन तत्व होते है । जैसे दही को मयने से मरतन ऊपर या जाता है, वैसे ही उन तीन सूदन तत्वों से बना हुमा मज जब पेट में जाता है तय. टनमें से तेज-ताव के कारण मनुष्य के शरीर में स्यूल, मध्यम और सूक्ष्म परिणाम-जिन्हें ममतः अस्यि, मवा और वाणी कहते हैं-उत्पा हुआ करते काइली प्रकार मार मयान जल-ताप से मूत्र. रक्त और प्राण तथा प्रसार पृथ्वी-तत्व से पुरेप, मांस और मन ये तीन द्रव्य निर्मित होते हैं" (घां.६.२-६)। चांदोग्योपनिषद की बद्दी पद्धति वेदान्तसूत्रों (२.४.२०) में भी कही गई है, कि मूल महाभूतों की संख्या पाँच नहीं, केवल तीन ही है और उनके वितरण से सब एश्य पदापों की उत्पत्ति भी मानून की जा सकती है । यादरायणाचार्य तो पञ्चीकरण का नाम तक नहीं लेते सयापि तैत्तिरीय (२.१), प्रश्न (४.८), वृहदारण्यक (१.४.५) प्रादि मन्य उपनि- पदों में, और विशेषतः त्तावतर (२.१२), बंदान्तसून (२. ३. ३-१४)वचा गीता (७.४, १३.५) में भी. तीन के बदले पाँच महाभूतों का वर्णन है। गर्मो- पनिषद् के आरंभ ही में कहा है कि मनुष्यन्देह 'पञ्चात्मक' है धौर, महाभारत तया पुराणों में तो पतीकरण का स्पष्ट वर्णन ही किया गया है (मभा. शां. 142-1-६) । इससे यही सिद्ध होता है कि, यद्यपि निवृत्करण प्राचीन तथापि जव महाभूतों की संख्या तीन के बदले पाँच मानी जाने लगी तय त्रि- करण के उदाहरण ही से पजीकरण की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ और प्रिवृत्करण पीछे रह गया, एवं अंत में पजीकरण की कल्पना सब पैदान्तियों को ग्रास हो गई । आगे चल कर इसी पक्षीकरण शब्द के अर्थ में यह बात भी शामिल