पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२४०

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अध्यात्म । २०१ 4 परमात्मा मुक्त होने पर, 'कहलाता है" (मभा. शां. १८७.२४) । सम्भव है कि परमात्मा' की उपर्युक दो व्याख्याएँ भिता मिल जान पड़े, परन्तु वस्तुतः ये भिन्न भिन्न हैं नहीं । क्षर-अक्षर सृष्टि और जीव (अथवा सांख्यशास्त्र के अनुसार अव्यक्त प्रकृति और पुरुष) इन दोनों से भी परे एक ही परमात्मा है इसलिये भी कहा जाता है कि वह क्षर-अक्षर के परे है, और कभी कहा जाता है कि वह जीव कै या जीवात्मा के (पुरुप के) परे है-एवं एक ही परमात्मा की ऐसी द्विविध व्याख्याएँ कहने में, वस्तुतः कोई भिन्नता नहीं हो जाती । इसी अभिप्राय को मन में रख कर कालिदास ने भी झुमारसम्भव में परमेश्वर का वर्णन इस प्रकार किया है-"पुरुष के लाभ के लिये उधुक्त होनेवाली प्रकृति भी तू ही और स्वयं उदासीन रह कर उस प्रकृति का द्रष्टा भी तू ही है" (कुमा. २. १३) । इसी भाँति गीता में भगवान् कहते हैं कि " मम योनिमहद्बम " यह प्रकृति मेरी योनि या मेरा एक स्वरूप है (१४.३) और जीव या आत्मा भी मेरा ही अंश है (१५.७)। सातवें अध्याय में भी कहा गया है- भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ अर्थात् " पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, अाकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-इस तरह पाठ प्रकार की मेरी प्रकृति है और इसके सिवा (अपरेयमितस्त्वन्यां) सारे संसार का धारण जिसने किया है वह जीव भी मेरी ही दूसरी प्रकृति है" (गी. ७.४,५)। महाभारत के शान्तिपर्व में सांख्यों के पशील तत्वों का कई स्थलों पर विवेचन है। परन्तु वहीं यह भी कह दिया गया है, कि इन पञ्चीस तवों के परे एक छव्यीसवाँ (पड्विंश) परम तत्त्व है, जिसे पहचाने विना मनुष्य 'बुद्ध नहीं हो सकता (शां.३०८)। सृष्टि के पदार्थों का जो ज्ञान इमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों से होता है वही हमारी सारी सृष्टि है। अतएव प्रकृति या सृष्टि ही को कई स्थान पर 'ज्ञान' कहा है और इसी दृष्टि से पुरुप 'ज्ञाता' कहा जाता है (शां. ३०६.३५-४१)। परन्तु जो सच्चा ज्ञेय है (गी. १३.१२), वह प्रकृति और पुरुष-ज्ञान और ज्ञाता- से भी परे है, इसी लिये भगवद्गीता में उसे परम पुरुष कहा है। तीनों लोकों को व्याप्त कर उन्हें सदैव धारण करनेवाला जो यह परम पुरुष या पर पुरुष है उसे पहचानो, वह एक है, अव्यक्त है, नित्य है, अक्षर है-यह बात केवल भगवनीता ही नहीं किन्तु वेदान्त-शास्त्र के सारे ग्रन्थ एक स्वर से कह रहे हैं । सांख्यशास्त्र . में 'अक्षर' और 'अध्यक्त' शब्दों या विशेषणों का प्रयोग प्रकृति के लिये किया जाता है। क्योंकि सांख्यों का सिद्धान्त है कि प्रकृति की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और कोई भी मूल कारण इस जगत् का नहीं है (सां. का.६१)। परन्तु यदि वेदान्त की दृष्टि से देखें, तो परमहा ही एक अक्षर है यानी उसका कभी नाश नहीं होता; और वही अन्यक है अर्थात् इन्द्रिय-गोचर नहीं है अतएव, इस भेद पर पाठक सदा ध्यान रखें कि भगवद्गीता में 'अक्षर ' और 'अव्यक्त' शब्दों का प्रयोग गी, र,२६