२१२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। ही जगत् का मूल है। परंतु अब इसकी उपपत्ति देना चाहिये कि निर्गुण से सगुण कैसे हुआ, क्योंकि सांस्य के समान वेदान्त का भी यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु नहीं है वह हो ही नहीं सकती; और उससे, 'जो वस्तु है उसकी कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस सिद्धान्त के अनुसार निर्गुण (अर्थात् जिस में गुण नहीं उस) ब्रह्म से सगुण सृष्टि के पदार्थ (कि जिन में गुगा है) उत्पन्न हो नहीं सकते।तो फिर सगुण आया कहाँ से? यदि कहें कि सगुण कुछ नहीं है, तो वह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर है। और यदि निर्गुण के समान सगुण को भी सत्य मान; तो हम देखते हैं कि इन्द्रिय-गोचर होनेवाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि सब गुणों के स्वरूप प्राज एक हैं तो कल दूसरे ही-अर्यात् वे नित्य परिवर्तनशील होने के कारण नाशवान्, विकारी और प्रशाश्वत हैं, तब तो (ऐसी कल्पना करके कि परमेश्वर विभाज्य है) यही कहना होगा कि ऐसा सगुण परमेबर भी परिवर्तनशील एवं नाशवान् है। परन्तुजो, विभाज्य और नाशवान् हो कर सृष्टि के नियमों की पकड़ में नित्य परतंत्र रहता है, उसे.परमेश्वर ही कैसे कह? सारांश, चाहे यह मानो कि इन्द्रिय-गोचर सारे सगुण पदार्य पञ्चमहाभूतों से निर्मित हुए हैं अथवा सांख्यानुसार या प्राधिभौतिक दृष्टि से यह अनुमान कर लो कि सारे पदायों का निर्माण एक ही अव्यक्त सगुण मूल प्रकृति से हुया है। किसी भी पक्ष का स्वीकार करी, यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि जब तक नाशवान् गुगा इस मूल प्रकृति से भी दूर नहीं गये हैं, तब तक पञ्चमहाभूतों को या प्रकृतिरूप इस सगुण मूल पदार्य को जगत् का अविनाशी, स्वतंग और अमृत तय नहीं कह सकते। अतएव जिसे प्रकृति-वाद का स्वीकार करना है उसे उचित है कि वह या तो यह कहना छोड़ दे कि परमेश्वर नित्य स्वतंत्र और नमृतरूप है; या इस यात की खोज करे कि पञ्चमहाभूतों के परे अयवा सगुण मूल प्रकृति के भी परे और कौन सा तत्व है। इसके सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है। जिस प्रकार गजल से प्यास नहीं बुझती या बालू से तेल नहीं निकलता, उसी प्रकार प्रत्यक्ष नाशवान् वस्तु से अमृतस्व की प्राक्षि की आशा करना भी व्यर्थ है। और इसी लिये याज्ञवल्क्य ने अपनी स्त्री मैत्रेयी को स्पष्ट उपदेश किया है कि चाहे जितनी संपति क्यों न मात हो जावे, पर उससे अमृतत्त्व की प्राशा करना व्यय है- अमृतत्वत्य तु नाशास्ति वित्तेन" (वृह. २.१.२)। अच्छा; अब यदि अमृतत्व को मिव्या कहें, तो मनुष्यों को यह स्वाभाविक इच्छा देख पड़ती है, कि वे किसी राजा से मिलनेवाले पुरस्कार या पारितोपिक का उपभोग न केवल अपने लिये परन् अपने पुत्र-पौत्रादि के लिये भी अर्थात् चिरकाल के लिये करना चाहते हैं अथवा यह भी देखा जाता है कि चिरकाल रहनेवाली या शावत कीर्ति पाने का जव अवसर आता है, तव मनुष्य अपने जीवन की भी परवा नहीं करता। ऋग्वेद के समान अत्यंत प्राचीन अन्यों में भी पूर्व ऋपियों की यही प्रार्थना है, कि “ हे इन्द्र ! तू इमें 'अक्षित श्रव' अर्थात् अक्षय कीर्ति या धन दे" (ऋ. १.६.७), अथवा "हे सोम! तू मुझे वैवस्वत (यम) लोक में अमर कर दे" (ऋ. ६. १३.८)। और, अर्वा-
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