अध्यात्मा इन्द्रियों को नाम-रूप के अतिरिफ और किसी का भी प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है, तो भी इस अनित्य नाम-रूप के प्रारदादन से ढंका हुआ लेकिन आँखों से न देख पड़नेवाला अर्थात् कुछ न कुछ प्रत्यक नित्य द्रव्य रहना ही चाहिये और इसी कारण सारी सृष्टि का ज्ञान हमें एकता से होता रहता है। जो कुछ ज्ञान होता है। सो प्रात्मा को ही होता है, इसलिये शात्मा ही ज्ञाता यानी जाननेवाला हुआ। और इस शाता को नाम रूपात्मक सूधि का ही शान होता है। अतः नाम-रूपात्मक या सृष्टि ज्ञान हुई (मभा. शां.३०६. ४०) और इस नाम-रूपात्मक सृष्टि के मूल में जो कुछ वस्तुताय है, यही शेय है । इसी वर्गीकरण को मान कर भगवद्गीता ने ज्ञाता को क्षेत्रज्ञ प्रात्मा और ज्ञेय को इन्द्रियातीत नित्य परमहा कहा ई (गी. १३. १२-१७); और फिर आगे ज्ञान को तीन भेद करके कहा है फि, मिलता या नानात्व से जो सृष्टि-शान होता है यह राजस है, तथा इस नानात्य का जो ज्ञान एकत्यरूप से होता है यह सायिक ज्ञान है (गी.१८.२०, २१)। इस पर कुछ लोग फहसे हैं कि इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का विविध भेद करना ठीक नहीं है। एवं यह मानने के लिये हमारे पास कुछ भी प्रमाण नहीं है कि हमें जो कुछ ज्ञान होता है, उसकी अपेक्षा जगत में और भी कुछ ई।गाय, घोड़े प्रमृति जोयाल घस्तुएँ हमें देख पड़ती है, वह तो ज्ञान भी, जो कि में होता है, और यद्यपि यह ज्ञान सत्य है तो भी यह यातनाने के लिये कि, वह ज्ञान ई काहे का, हमारे पास ज्ञान को छोड़ और कोई मार्ग ही नहीं रह जाता; प्रताप यह नहीं कहा जा सकता कि इस ज्ञान के अतिरिक्त पाय पदार्थ के नाते पुत्र स्वतन्त्र पस्तुण है अथवा इन याय यस्तुओं के मूल में और कोई स्वतन्त्र तप है। पयोंकि जब ज्ञाता ही न रक्षा, तप जगत् कहां से रहे ? इस रष्टि से विचार करने पर उक्त विविध घर्गीकरण में अर्थात् ज्ञाता, ज्ञान और शेप में-ज्ञेय नहीं रह पाता। ज्ञाता और उसको होनेवाला ज्ञान, यही दो यच जाते हैं और यदि इसी युक्ति को और सारा सा मागे ले चलें तो शाता' या ' द्रष्टा भी तो एक प्रकार का ज्ञान ही है, इस- लिये अन्त मे झाग के सिया दूसरी वस्तु ही नहीं रहती । इसी को विज्ञान-वाद' कहते हैं, पार योगाचार पत्र के बांदों ने इसे ही प्रमाण माना है। इस पन्थ के विद्वानों ने मतिपादन किया है कि ज्ञाता के ज्ञान के अतिरिक्त इस जगत में और कुछ भी स्वतन्त्र नहीं है। और तो क्या, दुनिया ही नहीं है, जो कुछ है मनुष्य का ज्ञान ही ज्ञान है । अंग्रेज मन्थकारों में भी घुम जैसे पगिस्त इस ढंग के मत के पुरस्कर्ता है। परन्तु वेदान्तियों को यह मत मान्य नहीं है । वेदान्तसूत्रों (२.२. २८-३२)में पाचार्य यादरायण ने और इन्हीं सूत्रों के माध्य में श्रीमच्छ- राचार्य ने इस मत का खगटन किया है। यह कुछ भूठ नहीं है कि मनुष्य के मन पर जो संस्कार होते हैं,शत में ही उसे विदित रहते हैं। और इसी को इम ज्ञान कहते हैं। परन्तु भव प्रश्न होता है कि यदि ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ ई ही नहीं तो गाय 'सम्मन्धी ज्ञान जुदा है, 'घोड़ा'-सम्बन्धी ज्ञान गुदा है,
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