२३६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कर लें। उन्हें रोकता कौन है ? जिन उदार महात्माओं ने उपनिपदों में अपना यह स्पष्ट विश्वास बतलाया है कि " नेह नानास्ति किञ्चन" (पृ. ४.४.१६ कट...) -इस सृष्टि में किसी भी प्रकार की अनेकता नहीं है, जो कुछ है वह मूल में सब " एकमेवाद्वितीयम् " (चां६.२.२) है, और जिन्होंने आगे यह वर्णन किया है कि “ मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इद्द नानेव पश्यति" जिसे इस जगत् में नानात्व देख पड़ता है, वह जन्म-मरण के चकर में फंसता है। हम नहीं समझते कि उन महा- त्माओं का श्राशय अद्वैत को छोड़ और भी किसी प्रकार हो सकेगा। परन्तु अनेक वैदिक शास्त्राओं के अनेक उपनिपद् होने के कारण जैसे इस शक्षा को थोड़ी सी गुंजाइश मिल जाती है कि कुल उपनिषदों का तात्पर्य क्या एक ही है। वैसा हाल गीता का नहीं है । जव गीता एक ही अन्य है, तब प्रगट ही है कि उसमें एक ही प्रकार के वेदान्त का प्रतिपादन होना चाहिये । और जो विचारने लगे कि वह कौन सा वेदान्त है, तो यह अद्वैतप्रधान सिद्धान्त करना पड़ता है कि " सब भूतों का नाश हो जाने पर भी जो एक ही स्थिर रहता है" (गी. ८-२०) वही यथार्थ में सत्य है एवं देह और विश्व में मिल कर सर्वत्र वही व्याप्त हो रहा है (गी. १३. ३१)। और तो क्या, आत्मौपम्य-बुद्धि का जो नीतिताव गीता में बतलाया गया है, उसकी पूरी पूरी उपपति भी अद्वैत को छोड़ और दूसरे प्रकार की वेदान्त दृष्टि से नहीं लगती है। इससे कोई हमारा यह आशय न समझ ले कि श्रीशंकराचार्य के समय में अथवा उनके पश्चात् अद्वैत मत को पोपण करनेवाली जितनी युक्तियों निकली है अथवा जितने प्रमाण निकाले हैं, वे सभी यच्चयावत् गीता में प्रतिपादित हैं। यह तो हम भी मानते हैं कि दैत, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत प्रति सम्प्रदायों की उत्पत्ति होने से पहले ही गीता बन चुकी है और इसी कारण से गीता में किसी भी विशेष सम्प्रदाय की युक्तियों का समावेश होना सम्भव नहीं है । किन्तु इस सम्मति से, यह कहने में कोई भी वाधा नहीं आती कि गीता का चेदान्त मामूली तौर पर शाकर सम्प्रदाय के ज्ञानानुसार अद्वैती है-वैती नहीं। इस प्रकार गीता और शाङ्कर सम्प्रदाय में तत्वज्ञान की दृष्टि से सामान्य मेल है सही पर हमारा मत है कि आचार-दृष्टि से गीता कम-संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को अधिक महत्व देती है, इस कारण गीता-धर्म शाकर सम्प्रदाय से भिन्न हो गया है । इसका विचार आगे किया जायेगा । प्रस्तुत विषय तत्वज्ञानसम्बधी है, इसलिये यहाँ इतना ही कहना है कि गीता और शाङ्कर सम्प्रदाय में दोनों में यह तत्वज्ञान एक ही प्रकार का है अर्थात् अद्वैती है। अन्य साम्प्रदायिक भाप्यों की अपेक्षा गीता के शाङ्कर भाष्य को जो अधिक महत्त्व प्राप्त हो गया है, उसका कारण भी यही है। ज्ञानदृष्टि से सारे नाम-रूपों को एक और-निकाल देने पर एक ही अविकारी और निर्गुण तत्व स्थिर रह जाता है। अतएव पूर्ण और सूक्ष्म विचार करने पर अद्वैत सिद्धान्त को ही स्वीकार करना पड़ता है। जब इतना सिद्ध हो चुका, तव अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से यह विवेचन करना आवश्यक है कि इस एक निर्गुण और
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