पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२७७

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२३८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। गुण-परिणाम से उपजा हुआ दूसरा सूर्य नहीं मानते । इसी प्रकार दूरवीन से किसी ग्रह के यथार्थ स्वरूप का निश्चय हो जाने पर ज्योति शास्त्र स्पष्ट कह देता है कि उस ग्रह का जो स्वरूप निरी आँखों से देख पड़ता है वह, दृष्टि की कमजोरी और उसके अत्यन्त दूरी पर रहने के कारण, निरा दृश्य उत्पन्न हो गया है । इससे प्रगट हो गया कि कोई भी बात नेत्रं आदि इन्द्रियों के प्रत्यक्ष गोचर हो जाने से ही स्वतन्त्र और सत्य वस्तु मानी नहीं जा सकती । फिर इसी न्याय का अध्यात्मशान में भी उपयोग करके यदि यह कहें तो क्या हानि है कि, ज्ञान-चतुरूप दूरवीन से जिसका निश्चय कर लिया गया है, वह निर्गुण परब्रह्म सत्य है। और ज्ञानहीन धर्मचक्षुओं को जो नाम-रूप गोचर होता है वह इस परब्रह्म का कार्य नहीं है वह तो इन्द्रियों की दुर्बलता से उपजा हुभा निरा भ्रम अर्थात् मोहात्मक दृश्य है। यहाँ पर यह प्रक्षेप ही नहीं फवता कि निर्गुण से सगुण उत्पन्न नहीं हो सकता । क्योंकि दोनों वस्तुएँ एक ही श्रेणी की नहीं हैं। इनमें एक तो सत्य है और दूसरी है सिर्फ दृश्य एवं अनुभव यह है कि मूल में एक ही वस्तु रहने पर भी, देखनेयाले पुरुप के दृष्टि-भेद से, अज्ञान से अथवा नज़रपन्दी से उस एक ही वस्तु के दृश्य बदलते रहते हैं। उदाहरणार्थ, कानों को सुनाई देनेवाले शब्द और आँखों से दिखाई देने वाले रग-इन्हीं दोगुणों को लीजिये । इनमें से कानों को जो शब्द या अवाज़ सुनाई देती है, उसकी सूक्ष्मता से जाँच करके आधिभौतिक-शास्त्रियों ने पूर्णतया सिद्ध कर दिया है कि 'शब्द' या तो वायु की लहर है या गति है । और अव सूक्ष्म शोध करने से निश्चय हो गया है कि ऑखों से देख पड़नेवाले लाल, हरे, पीले, आदि रङ्ग भी मूल में एक ही सूर्य प्रकाश के विकार हैं और सूर्य-प्रकाश स्वयं एक प्रकार की गति ही है। जब कि गति ' मूल में एक ही है, पर कान उसे शब्द और आँखें उसी को रङ्ग बतलाती हैं। तब यदि इसी न्यायं का उपयोग कुछ अधिक व्यापक रीति से सारी इन्द्रियों के लिये किया जावे, तो सभी नाम-रूपों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सत्कार्य-वाद की सहायता के बिना ही ठीक ठीक उपपत्ति इस प्रकार लगाई जा सकती है, कि किसी भी एक अधिकार्य वस्तु पर मनुष्य की भिन्न भिन्न इन्द्रियाँ अपनी अपनी ओर से शब्द-रूप यादि अनेक नाम-रूपात्मक गुणों का 'अध्यारोप' करके नाना प्रकार के दृश्य उपजाया करती हैं परन्तु कोई आवश्यकता नहीं है कि मूल की एक ही वस्तु में ये दृश्य, ये गुण अथवा ये नाम-रूप हो, ही। और इली अर्थ को सिद्ध करने के लिये रस्सी में सर्प का, अथवा सीप में चाँदी का भ्रम होना, या आँख में उँगली डालने से एक के दो पदार्थ देख पड़ना अथवा अनेक रंगों के चप्मे लगाने पर एक पदार्थ का रंग-बिरंगा देख पड़ना भादि अनेक दृष्टान्त वेदान्तशास्त्र में दिये जाते हैं । मनुष्य की इन्द्रियाँ उससे कभी छूट नहीं जाती हैं, इस कारण जगत के नाम-रूप अथवा गुण उसके नयन-पय में गोचर तो अवश्य होंगे; परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि इन्द्रियवान् मनुष्य की दृष्टि से जगत् का जो सापेक्ष स्वरूप देख पड़ता है, वही इस जगत के मूल का अर्यात