पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२९७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । स्कूर्ति हुई है, वही सिद्धान्त, आगे प्रतिपक्षियों को विवर्त-वाद के समान बचित टचर देकर और भी हड़. स्पट या तकदृष्टि से निःसंदेह किये गये हैं-इसके आगे अभी तक न कोई बड़ा है और न यड़ने की विशेष प्राशा ही की जा सकती है। अध्यात्म-प्रकरण समाइ हुआ! अब धागे चलने के पहले 'केसरी' की चान के अनुसार उस मार्ग का युद्ध निरीक्षण हो जाना चाहिये कि जो यहाँ तक चलाये है । कारण यह है कि यदि इस प्रकार सिंहावलोचन न किया जावे, वो विषयानुसंधान के चूक जाने से लन्भव है कि बार किसी अन्य मार्ग ने सञ्चार होने लगे । मन्यान्म में पाठकों को विषय में प्रवेश कराके -जिज्ञासा का संक्षिप्त स्वरूप बतलाया है और तीसरे प्रकरण में यह दिखलाया है कि कर्मयोगशाल ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । अनंतर चौथे, पांचवें और के प्रकरण में सुखदुःख- विवेकपूर्वक यह बतलाया है, जि कनयोगशास्त्र की आधिभौतिक उपपत्ति एक- देशीय तथा अपूर्ण और नादिविक उपपति लँगड़ी है । फिर, कर्मयोगही आध्यात्मिक उपपत्ति यतताने के पहले, यह जानने के लिये कि आत्मा किस कहते हैं, छठे प्रकरण में ही पहले क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार और भागे सातवें तथा आठवें प्रकरण में लांज्यशास्त्रान्तर्गत दैत के अनुसार स्वरविचार छिया गया है। और फिर इस प्रकरण ने भाकर इस विषय का निरूपण किया गया है कि आत्मा का स्वरूप क्या है, क्या पिरात गैर यहाण्ड में शेनों और एकही अमृत और निर्गुण अात्मतत्व किस प्रकार ओतप्रोत और निरन्तर च्याप्त है। इसी प्रकार यहां यह नी निश्चित लिया गश है कि ऐसा लन्युद्धि-योग प्रात मर-कि लयमाणियों में एक ही आत्मा ई- उसे सदैव जागृत रखना ही आत्मज्ञान की और आत्मसुख की पराकाष्टा है और फिर यह बतलाया गया है कि अपनी बुद्धि को इस प्रकार शुद्ध आत्मनिट अवस्या में पहुंचा देने में ही ननुन्य का मनुष्यत्व अर्थात् नर-देह की सार्थकता या मनुष्य का परम पुरुषार्य है । इस प्रकार मनुष्य-जाति के आध्यात्मिक परम साध्य का निर्णय हो जाने पर कर्मयोगशाल के इस मुख्यमस का भी निर्णय श्राप ही आप हो जाता है, कि संसार में हन प्रतिदिन जो व्यपक्षर करने पड़ते हैं वे किस नीति से किये जावें, अथवा जिस शुद्ध बुद्धि से उन सांसारिक व्यवहारों को करना चाहिये उसका यथार्य स्वरूप क्या है । क्योकि मय यह बतलाने की प्राव- श्यकता नहीं कि ये सारे व्यवहार उसी रीति ले जिन्य जाने चाहिए कि जिससे वे परि- णाम में ब्रह्मात्मक्यल्प लम्वृद्धि के पोप या अविरोधी हो। भगवद्गीता में कर्मयोग के इसी आध्यात्मिक तत्व का उपदेश अर्जुन को यिा गया है । परन्तु कर्मयोग का प्रतिपादन केवल इतने ही से पूरा नहीं होता। क्योंकि कुछ लोगों का कहना है कि नामरूपालक शष्टि के व्यवहार झालज्ञान के विल्द है सतएव ज्ञानी पुरुष उनको छोड़ दे, और यदि यही यात सल हो, तो संसार के सारे व्यवहार त्याज्य समझे जारी, और फिर कम-यमंशान भी निरर्थक हो जावेगा! अतएव इस विषय का पिने के लिये कर्मयोगशाव ऐसे प्रदॉ का मी विचार अदद करवा