कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । " चाहिये-फिर चाहे उसमें अधोगति हो अथवा प्रगति । इस पर कुछ अन्य आधिक भौतिक उत्क्रान्ति-वादियों का कहना है कि प्रकृति का स्वरूप स्थिर नहीं है और नाम-रूप क्षण-क्षण में बदला करते हैं। इसलिये जिन सृष्टि-नियमों के अनुसार ये परिवर्तन होते हैं, उन्हें जान कर मनुष्य को बाह्य-सृष्टि में ऐसा परिवर्तन कर लेना पाहिये कि जो उसे हितकारक हो; और इम देखते हैं कि मनुष्य इसी न्याय से प्रत्यक्ष व्यवहारों में अग्नि या विधुच्छक्ति का उपयोग अपने फायदे के लिये किया करता है । इसी तरह यह भी अनुभव की बात है कि प्रयल से मनुष्य स्वभाव में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य हो जाता है । परन्तु प्रस्तुत प्रश्न यह नहीं है कि सृष्टि-रचना में या मनुष्य-स्वभाव में परिवर्तन होता है या नहीं, और करना चाहिये या नहीं हमें तो पहले यही निश्चय करना है कि ऐसा परिवर्तन करने की जो बुद्धि या इच्छा मनुष्य में उत्पन्न होती है उसे रोकने या न रोकने की स्वाधीनता उसमें है या नहीं। और, आधिभौतिक शास्त्र की दृष्टि से इस बुद्धि का होना या न होना ही यदि " बुद्धिः कर्मानुसारिणी" के न्याय के अनुसार प्रकृति, कर्म या सृष्टि के नियमों पहले ही निश्चित हुा रहता है, तो यही निप्पन्न होता है कि इस प्राधिभौतिक शास्त्र के अनुसार किसी भी कर्म को करने या न करने के लिये मनुष्य स्वतंत्र नहीं है। इस वाद को " वासना-स्वातन्त्र्य,"n इच्छा-स्वातन्त्र्य" या प्रवृत्ति-स्वातन्त्र्य" कहते हैं। केवल कर्म-विपाक अथवा केवल आधिभौतिक शास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाय तो अन्त में यही सिद्धान्त करना पड़ता है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार का प्रवृत्ति-स्वातन्त्र्य या इच्छा-स्वातन्त्र्य नहीं है-वह कर्म के अछेद्य बन्धनों से वैसा ही जकड़ा हुआ है जैसे किसी गाड़ी का पहिया चारों तरफ से लोहे की पट्टी से जकड़ दिया जाता है । परन्तु इस सिद्धान्त की सत्यता के लिये मनुष्यों के अन्तस्करण का अनुभव गवाही देने को तयार नहीं है। प्रत्येक मनुष्य अपने अन्त:- करण में यही कहता है कि यद्यपि मुझ में सूर्य का उदय पश्चिम दिशा में करा देने की शकि नहीं है, तो भी मुझ में इतनी शक्ति अवश्य है कि मैं अपने हाथ से होनेवाले कार्यों की भलाई-धुराई का विचार कर के उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार करूँ यान करूँ, अथवा जब मेरे सामने पाप और पुण्य तथा धर्म और अधर्म के दो मार्ग उपस्थित हो, तब उनमें से किसी एक को स्वीकार कर लेने के लिये मैं स्वतन्त्र हूँ। भव यही देखना है कि यह समझ सच है या झूठ । यदि इस समझ को भूल कहें, तो हम देखते हैं कि इसी के आधार से चोरी, हत्या प्रादि अपराध करने. घालों को अपराधी ठहरा कर सज़ा दी जाती है। और यदि सच मानें तो कर्म-वाद, कर्म-विपाक या एश्य-सृष्टि के नियम मिय्या प्रतीत होते हैं । आधिभौतिक शास्त्रों में केवल जड़ पदार्थों की क्रियायों का ही विचार किया जाता है। इसलिये वहाँ यह प्रभ अत्पन्न नहीं होता; परन्तु जिस कर्मयोगशास्त्र में ज्ञानवान् मनुष्य के कर्तव्य- अकर्तव्य का विवेचन करना होता है, उसमें यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है और इसका उत्तर देना. भी भावश्यक है। योंकि एक बार यदि यही भन्तिम
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