पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३१८

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२७९ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । घह खुली जगह में रहती है तब उसका कुछ जोर नहीं चलता; परन्तु वह जब किसी बर्तन में बंद कर दी जाती है तब इसका दयाव उस बर्तन पर जोर से होता शुभा देख पड़ने लगता है। ठीक इसी तरह जब परमात्मा का ही अंशभूत जीव (गी. १५.७) अनादि-पूर्व-कर्मानित जड़ देश तथा इन्द्रियों के बन्धनों से बन्द हो जाता है, तब इस बद्धावस्था से उसको मुक्त करने के लिये (मोतानुकूल) कर्म करने की प्रवृत्ति देहेन्द्रियों में होने लगती है और इसी को व्यावहारिक दृष्टि से "सात्मा की स्वतन्त्र प्रवृत्ति" कहते हैं। " व्यावहारिक टि से" कहने का कारण यह है कि शुद्ध मुक्तावस्था में या " तात्विक दृष्टि से" भात्मा इच्छा-रहित तथा अकता है-सब कर्तृत्व केवल प्रकृति का है (गी. १३. २९; वैसू. शांभा. २.३. ४०)। परन्तु वेदान्ती लोग सांख्य-मत की भाँति यह नहीं मानते कि प्रकृति ही स्वयं मोक्षानुकूल कर्म किया करती है। क्योंकि ऐसा मान लेने से यह कहना पड़ेगा कि जड़ प्रकृति अपने अंधेपन से थज्ञानियों को भी मुक्त कर सकती है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो मात्मा मृल ही में अफर्ता है, वह स्वतन्त्र रीति से, अर्थात् बिना किसी निमित्त के, अपने मैसर्गिक गुणों से ही प्रवर्तक हो जाता है। इसलिये प्रात्म-स्वातव्य के उक्त सिद्धान्त को घेदान्तशाण में इस प्रकार यतलाना पड़ता है, कि आत्मा यधपि मूल में मकता ई तथापि यधनों के निमित्त से यह इतने ही के लिये दिखाज प्रेरफ बन जाता है, और अब यह भाग- न्तुक प्रेरकता उसमें एक पार किसी भी निमित्त से या जाती है, तब वह कर्म के नियमों से भिन अर्थात् स्वतन्त्र ही रहती है । " स्वतंत्र" का अर्थ निनिमितक नहीं है, और प्रात्मा अपनी मूल शुखापस्या में कर्ता भी नहीं रहता । परन्तु बार यार इस लम्पी चौड़ी कर्म-कथा को न यतलाते रह कर इसी को संक्षेप में आत्मा की स्वतन्त्र प्रवृत्ति या प्रेरणा कहने की परिपाटी हो गई है। बन्धन में पड़ने के कारण श्रात्मा के द्वारा इन्द्रियों को मिलनेवाली स्थतन्य प्रेरणा में और बावटि के पदार्थों के संयोग से इन्द्रियों में उत्पन्न होनेपाली प्रेरणा में यहुत भिन्नता है। खाना, पीना, चन करना ये सब इन्द्रियों की प्रेरणाएँ हैं, और आत्मा की प्रेरणा मोनानुकूल फर्म करने के लिये हुआ करती है। पहली प्रेरणा केवल यास अर्थात् कर्म-सृष्टि की है। परन्तु दूसरी प्रेरणा भारमा की अर्थात् प्रम-सृष्टि की है। और ये दोनों प्रेरणाएँ प्रायः परस्पर-विरोधी हैं जिससे इन के झगड़े में ही मनुष्य की सब प्रायु बीत जाती है। इनके झगड़े के समय जब मन में सन्देह उत्पन्न होता है तब फर्म-सृष्टि की प्रेरणा को न मान कर (भाग. ११. १०.४) यदि मनुष्य शुद्धामा को स्वतन्त्र प्रेरणा के अनुसार चलने लगे और इसी को सच्चा शात्मज्ञान या सरची प्रात्मनिष्ठा कहते है-तो इसके सव व्यवहार स्वभावतः मोक्षानुकूल ही होंगे और भन्त में विशुद्धधमी शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान् । विमलामा च भवति समेत्य विमलात्मना । स्वतन्त्रश्च स्वतन्वेण स्वतन्त्रत्वमवाप्नुते ॥