कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २६१ कताओं को देवगण पूरा करें। आज कल इमें इन विचारों का कुछ महत्व मालूम नहीं होता क्योंकि यज्ञ-याग रूपी श्रौत-धर्म अप प्रचलित नहीं है । परन्तु गीता- काल की स्थिति भिन्न थी, इसलिए भगवद्गीता (३.१६-२५) में भी यज्ञचक का महत्व पर कहे अनुसार बतलाया गया है । तथापि गीता से यह स्पष्ट मालूम होता है कि उस समय भी उपनिपदों में प्रतिपादित ज्ञान के कारण मोत-दष्टि से इन फर्मों को गौणता आ चुकी थी (गी. २. ४१-४६) । यही गौणता अहिंसा-धर्म का प्रचार होने पर आगे प्राधिकाधिक बढ़ती गई । भागवतधर्म में स्पष्टतया प्रतिपादन किया गया है कि यज्ञ-याग वेदविहित हैं तो भी उनके लिये पशुवध नहीं करना चाहिये, धान्य से ही यज्ञ करना चाहिये (देखो मभा. शां. ३३६. १० और ३३७) । इस कारण (तथा कुछ अंशों में आगे जैनियों के भी ऐसे ही प्रयत्न करने के कारण)ौत यज्ञमार्ग की आज कल यह दशा हो गई है, कि काशी सरीखे बड़े बड़े धर्म-क्षेत्रों में भी श्रौताग्निहोत्र पालन करनेवाले अग्निहोत्री बहुत ही थोड़े देख पड़ते हैं, और ज्योतिष्टोम आदि पशु-यज्ञों का होना तो दस बीस वयाँ में कमी कभी सुन पड़ता है । तथापि श्रौतधर्म ही सय वैदिक धर्मों का मूल है और इसी लिए उसके विषय में इस समय भी कुछ आदरयुदि पाई जाती है और जैमिनि के सूत्र अर्थ-निणायकशास्त्र के तौर पर प्रमाण माने जाते हैं। यद्यपि श्रौत- यज्ञ-याग-प्रावि धर्म इस प्रकार शिथिल हो गया, तो भी मन्वादि स्मृतियों में वर्णित दूसरे यज्ञ-जिन्हें पञ्चमहायज्ञ कहते हैं -अय तक प्रचलित हैं और इनके सम्बन्ध में भी श्रौतयश-यागचक्र मादि के ही उक्त न्याय का उपयोग होता है। उदाहरणार्थ, मनु प्रादि स्मृतिकारों ने पाँच अहिंसात्मक तथा नित्य गृहयज्ञ यतलाये हैं; जैसे वेदाध्ययन महायज्ञ है, तर्पण पितृयज्ञ है, होम देवयज्ञ है, चाले भूतयज्ञ है और भतिथि-संतर्पण मनुष्ययज्ञ है तथा गाईस्थ्य-धर्म में यह कहा है कि इन पाँच यज्ञों के द्वारा क्रमानुसार अपियों, पितरों, देवताओं, प्राणियों तथा मनुष्यों को पहले तृप्त करके फिर किसी गृहस्थ को स्वयं भोजन करना चाहिये (मनु. ३.६८-१२३)। इन यज्ञों के कर लेने पर जो अब बच जाता है उसको "अमृत" कहते हैं। और पहले सब मनुष्यों के भोजन कर लेने पर जो अज पचे उसे 'विषस' कहते हैं (म.३. २५) यह 'अमृत' और 'विघस ' अन्न ही गृहस्थ के लिये विहित एवं श्रेयस्कर है। ऐसा न करके जो कोई सिर्फ अपने पेट के लिये ही भोजन पका कर खावे, तो वह अघ अर्थात पाप का भक्षण करता है और उसे क्या मनुस्मृति, क्या ऋग्वेद और गीता, सभी ग्रन्थों में 'अघाशी' कहा गया है (क्र. १०. ११७.६ मनु. ३. ११८, गी. ३. १३) । इन सात पञ्चमहायज्ञों के सिवा दान, सत्य, दया, अहिंसा आदि सर्वभूत-हितमद अन्य धर्म भी उपनि- पदों तथा स्मृतिप्रन्यों में गृहस्थ के लिये विहित माने गये हैं (ते. १.११); और उन्हीं में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि कुटुम्य की वृद्धि करके वंश को स्थिर रखो-"प्रजातंत मा व्यवच्छत्सीः "ये सब कर्म एक प्रकार के यज्ञ ही माने
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