पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३५०

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संन्यास और कर्मयोग। " ज्ञानी और मूर्ख मनुप्यों के कर्म करने में शरीर तो एक सा रहता है, परंतु बुद्धि में भिन्नता रहती है" (प्राविमार. ५.५)। कुछ फुटकल संन्यास-मार्गवालों का इस पर यह और कथन है कि "गीता में अर्जुन को कम करने का उपदेश तो दिया गया है। परन्तु भगवान् ने यह उपदेश इस बात पर ध्यान दे कर किया है, कि अज्ञानी अर्जुन को, चित्त-शुद्धि के लिये, कर्म करने का ही अधिकार था। सिद्धावस्था में भगवान् के मत से भी कर्मत्याग ही श्रेष्ठ है।" इस युक्तिवाद का सरल भावार्थ यही देख पड़ता है, कि यदि भगवान् यह कह देते कि " अर्जुन! तू अज्ञानी है," तो वह उसी प्रकार पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के लिये आग्रह करता, जिस प्रकार कि कठोपनिषद् में नचिकेता किया था, और तो उसे पूर्ण ज्ञान यतलाना ही पडता; एवं यदि वैसा पूर्ण ज्ञान उसे बतलाया जाता तो वह युद्ध छोड़ कर संन्यास ले लेता और तब तो भगवान् का भारतीय युद्ध-संबंधी सारा उद्देश भी विफल हो जाता-इसी भय से अपने अत्यन्त प्रिय भक्त को धोखा देने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किया है! इस प्रकार जो लोग सिर्फ अपने सम्प्रदाय का समर्थन करने के लिये, भगवान् के मत्थे भी अत्यन्त प्रिय भक्त को धोखा देने का निन्य कर्म मढ़ने के लिये प्रवृत्त हो गये, उनके साथ किसी भी प्रकार का बाद न करना ही अच्छा है। परंतु सामान्य लोग इन श्रामक युक्तियों में कहीं फँस न जावें, इसलिये इतना ही कह देते हैं कि श्रीकृष्ण को अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में यह कह देने के लिये, उरने का कोई कारण न था, कि " तू अज्ञानी है, इसलिये कर्म कर;" और इतने पर भी, यदि अर्जुन कुछ गड़बड़ करता, तो उसे अज्ञानी रख कर ही उससे प्रकृति-धर्म के अनुसार युद्ध कराने का सामर्थ्य श्रीकृष्णा में था ही (गी. १८. ५६ और ६० देखो)। परन्तु ऐसा न कर, बारबार 'ज्ञान' और 'विज्ञान' बतला कर ही (गी. ७.२७६.१, १०, ११३. २७१५.१), पन्द्रहवें अध्याय के अन्त में भगवान् ने अर्जुन से कहा है कि " इस शाख को समझ लेने से मनुष्य ज्ञाता और कृतार्थ हो जाता है" (गी. १५. २०)। इस प्रकार भगवान् ने उसे पूर्ण ज्ञानी यना कर उसकी इच्छासे ही उस से युद्ध करवाया है (गी. १८.६३)। इससे भगवान् का यह अभिप्राय सष्ट रीति से सिद्ध होता है कि ज्ञाता पुरुष को, ज्ञान के पश्चात भी, निष्काम कर्म करते ही रहना चाहिये और यही सर्वोत्तम पन है । इसके अतिरिक्त, यदि एक बार मान भी लिया जाय कि अर्जुन अज्ञानी था, तथापि उसको किये हुए उपदेश के समर्थन में जिन जनक प्रभृति प्राचीन कर्मयोगियों का और आगे भगवान् ने स्वयं अपना भी उदाहरण दिया है, उन सभी को अज्ञानी नहीं कह सकते । इसी से कहना पड़ता है कि साम्प्रदायिक भाग्रह की यह कोरी दलील सर्वथा त्याज्य और अनुचित है, तथा गीता में ज्ञानयुक्त कर्मयोग का ही उपदेश किया गया है। अब तक यह बतलाया गया कि सिद्धावस्या के व्यवहार के विषय में भी, कर्मत्याग (सांख्य) और कर्मयोग (योग) ये दोनों मार्ग न केवल हमारे ही देश