पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३५९

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३२० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । (गी. १८.६)। कर्म मायासृष्टि के ही क्यों न हों, परन्तु किसी अगम्य उद्देश से परमेश्वर ने ही तो उन्हें बनाया है, उनको वन्द करना मनुष्य के अधिकार की बात नहीं, वह परमेश्वर के अधीन है, अतएव यह बात निर्विवाद है, कि बुद्धि निःसस रख कर केवल शातीर कर्म करने से वे मोक्ष के वाधक नहीं होते । तब चित्त को विरक्त कर केवल इन्द्रियों से शास्त्र-सिद्ध कर्म करने में हानि ही क्या है? गीता में कहा ही है कि- "न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् " (गी. ३. ५, १८. ११)- इस जगत में कोई एक क्षण भर भी विना कर्म के रह नहीं सकता और अनुगीता में कहा है " नेप्कयं न च लोकेऽस्मिन् मूहूर्तमपि लभ्यते” (अश्व. २० ७)- इस लोक में (किसी से भी) घड़ी भर के लिये भी कर्म नहीं छूटते। मनुष्यों की तो विसात ही क्या, सूर्य-चन्द्र प्रभृति भी निरन्तर कर्म ही करते रहते हैं! श्राधिक क्या कहें, यह निश्चित सिद्धान्त है कि कर्म ही सृष्टि और सृष्टि ही कर्म है। इसी लिये हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि सृष्टि की घटनाओं को (अथवा कर्म को) क्षण भर के लिये भी विश्राम नहीं मिलता । देखिये, एक ओर भगवान् गीता में कहते हैं। "कर्म छोड़ने से खाने को भी न मिलेगा" (गी. ३.८)दूसरी ओर वनपर्व में द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती है “ अकर्मणा वै भूतानां वृत्तिः स्यानाहि काचन " (वन. ३२.८) अर्थात् कर्म के बिना प्राणिमात्र का निर्वाह नहीं और इसी प्रकार दासबोध में, पहले ब्रह्मज्ञान वतला कर, श्रीसमर्थ रामदास स्वामी भी कहते “ यदि प्रपञ्च छोड़ कर परमार्थ करोगे, तो खाने के लिये अन्ग भी न मिलेगा" (दा. १२. १.३)। अच्छा, भगवान् का ही चरित्र देखो; मालूम होगा कि आप प्रत्येक युग में मिन भिन्न अवतार ले कर इस मायिक जगत् में साधुओं की रक्षा और दुष्टों का विनाशरूप कर्म करते आ रहे हैं (गी. ४.८ और मभा. शां. ३३६. १०३ देखो)। उन्हीं ने गीता में कहा है, कि यदि मैं ये कर्म न करूं तो संसार उजड़ कर नष्ट हो जावेगा (गी. ३. २४)। इससे सिद्ध होता है, कि जब स्वयं भगवान् जगत् के धारणार्थ कर्म करते हैं, तब इस कथन से क्या प्रयोजन है, कि ज्ञानोत्तर कर्म निरर्थक है ? अतएव " यः क्रियावान् स परिडतः" (मभा. वन. ३१२. १०८) जो क्रियावान् है, वही पण्डित है -इस न्याय के अनुसार अर्जुन को निमित्त कर भगवान् सब को उपदेश करते है, कि इस जगत् में कर्म किसी से छूट नहीं सकते, कर्मों की बाधा से बचने के लिये मनुष्य अपने धर्मानुसार प्राप्त कर्जन्य को फलाशा त्याग कर अर्थात् निष्काम बुद्धि से सदा करता रहे-यही एक मार्ग (योग) मनुष्य के अधिकार में है और यही उत्तम भी है।प्रकृति तो अपने व्यवहार सदैवही करती रहेगी; परन्तु उसमें कर्तृत्व के अभिमान की बुद्धि छोड़ देने से मनुष्य मुक्त ही है (गी. ३. २७, १३. २९.१४. १६; १८. १६) । मुक्ति के लिये कर्म छोड़ने, या सांख्या के कथनानुसार कर्म-संन्यास-रूप वैराग्य, की ज़रूरत नहीं; क्योंकि इस कर्मभूमि में कर्म का पूर्णतया त्याग कर डालना शक्य ही नहीं है। इस पर भी कुछ लोग कहते हैं- हाँ, माना कि कर्मवन्ध तोड़ने के लिये कर्म