पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३६१

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गीताइस्य अथवा कर्मयोगशाला है उसकी मासकि। इससे गीता का सिद्धान्त है, कि सब प्रकार की वासनानं ये नष्ट करने के बदले ज्ञाता को उचित है कि केवल पासकि को छोड़ कर कर्म। यह नहीं, कि इस आसक्ति के टने से उसके साथ ही कर्म भी छुट जावे । और तो क्या, वासना के हुट जाने पर भी सब कर्मों का टूटना शक्य नहीं । वासना हो या न हो, हम देखते हैं कि, श्वासोच्छ्वास प्रकृति कर्म नित्य एकसे हुमा करते हैं। और आखिर क्षण भर नीवित रहना भी तो कर्म ही है एवं वह पूर्ण ज्ञान होने पर भी अपनी वासना से अयवा वासना के क्षय से दूर नहीं सकता । यह बात प्रत्या सिद्ध है, कि वासना के छूट जाने से कोई हानी पुरुष अपना प्राण नहीं खो बैठता और, इसी से गीता में यह वचन कहा "नहि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्टटरकर्म- कृत" (गी. ३.५)-कोई क्यों न हो, बिना कर्म किये रह नहीं सकता । गीतसर के कर्मयोग का पहला सिद्धान्त यह है, कि इस कर्मभूमि में कर्म तो निसर्ग से ही प्राप्त प्रवाह-पतित और अपरिहार्य है, वे मनुष्य की वासना पर अलवम्वित नहीं है । इस प्रकार यह सिद्ध हो जाने पर, कि कर्म और वासना का परसर निय सम्बन्ध नहीं है, वासना के क्षय के साथ ही फर्म का भी क्षय मानना निराधार हो जाता है। फिर यह प्रश्न सहज ही होता है, कि वासना का क्षय हो जाने पर भी ज्ञानी पुरुष को प्राप्त कर्म किस रीति से कना चाहिये । इस प्रम का उत्तर गीता के तीसरे अध्याय में दिया गया ई (गी. ३. 15-16 और उस पर हमारी टीकादेखो)। गीता को यह मत मान्य है कि, ज्ञानी पुरुष को ज्ञान के पश्चात् स्वयं अपना कोई कर्तव्य नहीं रह जाता । परंतु इसके आगे बढ़ कर गीता का यह भी कथन है कि कोई भी प्यों न हो, वह कर्म से छुट्टी नहीं पा सकता । कई लोगों को ये दोनों सिद्धान्त परस्पर-विरोधी जान पड़ते हैं, कि ज्ञानी पुरुष को कर्तव्य नहीं रहता और कर्म नहीं छूट सकते; परंतु गीता की बात ऐसी नहीं है । गीता ने उनका यो मेल मिलाया है. जब कि फर्म अपरिहार्य हैं, तव ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी ज्ञानी पुरुष को कर्म करना ही चाहिये । चूंकि टसको स्वयं अपने लिये कोई कचंन्य नहीं रह जाता, इसलिये अब उसे अपने सब कर्म निष्कामवृद्धि से करना ही चित है। सारांश, तीसरे अध्याय के १७ वैशौक के "तत्य कार्य न विद्यत वाक्य में. 'कार्य न विद्यत' इन शब्दों की अपेक्षा, 'तस्य' (अर्थात् वल ज्ञानी पुरुष के लिये) शब्द अधिक महाव का है और उसका भावार्य यह है कि स्वयं उसको अपने लिये कुछ प्रास नहीं करना होता, इसी लिचे अव (ज्ञान हो जाने पर) उसको अपना कम्य निर- पेक्ष बुद्धि से करना चाहिये । आगे 18वें श्लोक में, कारण-दोषक तस्माद' पदका प्रयोग कर, अर्जुन को इसी अयं का उपदेश दिया है " तस्मादसक्तः सततं कार्य कम समाचर" (गी. ३. १८)-इसी से तू शास्त्र से प्राप्त अपने कम्य को, आसक्ति न रख कर, करताना; कर्म का त्याग मत कर । तीसरे अध्याय के स 18 तक. तीन श्लोकों से जो कार्य-कारण-भाव व्यक्त होता है उस पर और अध्याय के समूचे प्रकरण के सन्दर्भ पर, ठोक डीक ध्यान देने से देख पड़ेगा कि, संन्यास