पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३६३

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३२४ गीतारहस्य भथवा कर्मयोगशाला । करते ही रहना चाहिये । यही गीता का कथन है और यदि प्रकरण की समता दृष्टि से देखें, तो भी यही अर्थ लेना पड़ता है। कर्म-संन्यास और कर्म-योग, इन दोनों में जो बड़ा अन्तर है, वह यही है । संन्यास पक्षवाले कहते हैं कि "नुमं कुछ फत्तय शेप नहीं बचा है, इससे तू कुछ भी न कर" और गीता (अयांन् कर्मयोग) का कपन है कि "तुझ कुछ कर्तव्य शेप नहीं यचा है, इसलिये अब तुझे जो कुछ करना है वह स्वार्य संबंधी चासना छोड़ कर अनासक्त घुदि से कर।" प्रय प्रश्न यह है कि एक ही हेतु-वाक्य से इस प्रकार मित्र भिन्न दो अनुमान क्यों निकले ? इसका उत्तर इतना ही है, कि गीता कमी को अपरिहार्य मानती है, इस. लिये गीता के वायविचार के अनुसार यह अनुमान निकल ही नहीं सकता कि 'कर्म छोड़ दो। अतएव 'तुझ अनावश्यक है इस इंतु-चात्य से ही गीता में यह अनुमान किया गया है कि स्वार्थ-बुद्धि छोड़ कर कर्म कर। वसिष्टजी ने योगवासिष्ट में श्रीरामचन्द्र को सय प्रमज्ञान यतला कर निष्काम कर्म की और प्रवृत्त करने के लिये जो युधियाँ यतलाई है, वे भी इसी प्रकार की है। योगवासिष्ट के अन्त में नगव- ट्रीता का उपर्युक्त सिद्धान्त ही अक्षरशः हुयह भा गया है (यो. ६. 1. Me मौर २९६. 11 तथा गी. ३. 16 के अनुवाद पर हमारी टिप्पणी देखो)। योग- वासिष्ट के समान ही रिधर्म के महायान पन्य के अन्यों में भी इस सम्बन्ध में गीता का अनुवाद किया गया है। परन्तु विषयान्तर होने के कारण, उसकी चर्चा यहीं नहीं की जा सकती। हमने इसका विचार भागे परिशिष्ट प्रकरण्य में कर दिया है। मात्मज्ञान होने से मैं और मेरा' यह प्रकार की नापा. ही नहीं रहती (गी... ३६ और २६) एवं इसी से ज्ञानी पुरुप को निरनम' कहते हैं। निर्मम का अर्थ मेरा-मेरा (मम) न कहनेवाला' है, परन्तु भूल न जाना चाहिये, कि यद्यपि नखज्ञान से 'मैं और मेरा' यह अहंकार-दर्शक भाव छुट जाता है, तथापि टन दो शब्दों के बदले जगद' और 'जगत् का'-अथवा भकि- पक्ष में 'परमेघर और परमेश्वर का ये शब्द नाजाते हैं। संसार का प्रत्येक सामान्य मनुष्य अपने समस्त व्यवहार मेरा' या 'मेरे लिये ही समझ कर किया करता है। परन्तु ज्ञानी होने पर, ममत्य की चासना छुट जाने के कारण, वह इस बुद्धि से (निर्मम बुद्धि से) टन प्यवहारों को करने लगता है कि ईबर-निर्मित संसार के समस्त व्यवहार परमेश्वर के हैं, और दनको करने के लिये ही इंवर ने हमें उत्पन किया है। प्रज्ञानी और ज्ञानी में यही तो भेद है (गी. ३. २०.२८)। गीता के इस सिद्धान्त पर ध्यान देने से ज्ञात हो जाता है, कि "योगारुढ पुरुष के लिये शम ही कारण होता है" (गी. ६.३ और उस पर हमारी टिप्पणी देखो), इस श्लोक का सरल अर्थ क्या होगा। गीता के टीकाकार कहते है-इस श्लोक में कहा गया है, कि योगारुड पुरुष भागे (ज्ञान हो जाने पर) ज्ञम अांद शान्ति को स्वीकार करे, और कुछ न करे। परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है। शम मन की