संन्यास और कर्मयोग । ३२७ सिद्धि के लिये, प्रवाह-पतित कर्म का (अर्थात् कर्म के अनादि प्रवाह में शास्त्र से प्राप्त ययाधिकार कर्म का) जो छोटा-बड़ा भाग मिले उसे ही, शान्तिपूर्वक कर्तव्य समझ कर किया करते हैं। और. फल पाने के लिये, कर्म-संयोग पर (अयवा भक्तिदृष्टि से परमेश्वर की इच्छा पर निर्भर हो कर निश्चित रहते हैं। "तेरा अधिकार केवल कर्म करने का है, फल होना तेरे अधिकार की यात नहीं" (गी. २.४७) इत्यादि उपदेश जो अर्जुन को किया है, उसका रहस्य भी यही है । इस प्रकार फलाशा को त्याग कर कर्म करते रहने पर, आगे कुछ कारणों से कदाचित् कर्म निष्फल हो जाय तो निष्फलता का दुख मानने के लिये हमें कोई कारण ही नहीं रहता, क्योंकि हम तो अपने अधिकार का काम कर चुके । उदाहरण लीजिय, वैद्यकशास का मत है, फि आयु की डोर (शरीर की पोपण करनेवाली नैसर्गिक धातुओं की शक्ति) सबल रहे पिना निरी ओपधियों से कभी फायदा नहीं होता और इस सोर की सबलता अनेक प्राक्तन अथवा पुश्तैनी संस्कारों का फल है । यह यात वैध के हाथ से होने योग्य नहीं, और उसे इसका निश्चयात्मक ज्ञान हो भी नहीं सकता। ऐसा होते हुए भी, इम प्रत्यक्ष देखते हैं, कि रोगी लोगों को आपधि देना अपना कर्तव्य समझ कर केवल परोपकार की बुद्धि से, वैथ अपनी बुद्धि के अनुसार हजारों रोगियों को दवाई दिया करते है। इस प्रकार निष्काम-बुद्धि से काम करने पर, यदि कोई रोगी चंगा न हो, तो उससे वह वैध उद्विग्न नहीं होता, बल्कि बड़े शान्त चित्त से यह शास्त्रीय नियम हूंढ़ निकालता है, कि अमुक रोग में अमुक औषधि से की सैकड़े इतने रोगियों को आराम होता है। परन्तु इसी वैध का लड़का जय बीमार पड़ता है, तब उसे ओपधि देते समय वह आयुष्य की ढोर वाली बात भूल जाता है और इस ममतायुक फलाशा से उसका चित्त घषड़ा जाता है कि " मेरा लड़का अच्छा हो जाय।" इसी से उसे या तो दूसरा वैद्य बुलाना पड़ता है, या दूसरे वैय की सलाह की आवश्यकता होती है! इस छोटे से उदाहरण से ज्ञात होगा, कि कर्मफल में ममतारूप आसक्ति किसे कहना चाहिये और फलाशा न रहने पर भी निरी कर्तव्य-बुद्धि से कोई भी काम किस प्रकार किया जा सकता है । इस प्रकार फलाशा को नष्ट करने के लिये यद्यपि ज्ञान की सहायता से मन में वैराग्य का भाव अटल होना चाहिये परन्तु किसी कपड़े का रस (राग) दूर करने के लिये जिस प्रकार कोई कपड़े को फाड़ना अचित नहीं समझत्ता, उसी प्रकार यह कहने से कि 'किसी कर्म में आसक्ति, काम, सङ्ग, राग अथवा प्रीति न रखो' उस कर्म को ही छोड़ देना ठीक नहीं । वैराग्य से कर्म करना ही यदि अशक्य हो, तो बात निराली है। परन्तु हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि वैराग्य से भली भाँति कर्म किये जा सकते हैं। इतना ही क्यों, यह भी प्रगट है कि कर्म किसी से छूटते ही नहीं। इसी लिये अज्ञानी लोग जिन कमी को फलाशा से किया करते हैं, उन्हें ही ज्ञानी पुरुष ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी लाभ-अलाभ तथा सुख-दुःख को एक सा मान कर (गी- २.३८) धैर्य एवं उत्साह से, किन्तु शुष-वद्धि से, फल के विषय में विरक्त या उदासीन रह कर
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