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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३७३

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३३४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ज्ञान का सचा पर्यवसान है । इस पर भी यह नहीं, कि कोई पुरुष ब्रह्मशानी होने से ही सब प्रकार के व्यावहारिक व्यापार अपने ही हाथ से कर डालने योग्य हो जाता हो । भीष्म और न्यास दोनों महाज्ञानी और परम भगवद्भक्त थे; परन्तु यह कोई नहीं कहता, कि भीष्म के समान व्यास ने भीलड़ाई का काम किया होता । देवताओं की ओर देखें, तो वहाँ भी संसार के संहार काने का काम शङ्कर के बदले विष्णु को सौंपा हुआ नहीं देख पड़ता। मन की निर्विषयता की, सम और शुद्ध बुद्धि की तथा आध्यात्मिक उन्नति की अन्तिम सीढ़ी जीवन्मुक्कावस्था है। वह कुछ आधि- भौतिक उद्योगों की दक्षता की परीक्षा नहीं है । गीता के इसी प्रकरण में यह विशेष उपदेश दुयारा किया गया है कि स्वभाव और गुणों के अनुरूप प्रचलित चातुर्वण्र्य श्रादि व्यवस्थाओं के अनुसार जिस कर्म को हम सदा से करते चले पा रहे है, स्वभाव के अनुसार उसी कर्म अथवा व्यवसाय को ज्ञानोत्तर भी ज्ञानी पुरुष लोक संग्रह के निमित्त करता रहे। क्योंकि उसी में उसके निपुण होने की सम्भावना है, वह यदि कोई और ही व्यापार करने लगेगा तो इससे समाज की हानि होगी (गी. ३. ३५, १८.४७) । प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरनिर्मित प्रकृति, स्वभाव और गुणों के अनुरूप जो भिन्न भिन्न प्रकार की योग्यता होती है, उसे ही अधिकार कहते है। और वेदान्तसूत्र में कहा है कि " इस अधिकार के अनुसार प्राप्त कर्मों को पुरुष यहाज्ञानी हो करके भी लोकसंग्रहार्य मरणापर्यंत करता जावे, छोड़ न दे-" याव- देधिकारमवंस्थितिराधिकारिणाम् " (वेसू. ३. ३. ३२)। कुछ लोगों का कथन है, कि वेदान्तसूत्रकर्ता का यह नियम केवल बड़े अधिकारी पुरुषों को ही उपयोगी है। और इस सूत्र के भाष्य में जो समर्थनार्थ उदाहरण दिये गये हैं, उनसे जान पड़ेगा कि वे सभी उदाहरण व्यास प्रभृति बड़े बड़े अधिकारी पुरुषों के ही हैं। परन्तु मूल सूत्र में अधिकार की छुटाई-बड़ाई के संबंध में कुछ भी उल्लेख नहीं है, इससे "अधिकार' शब्द का मतलब छोटे-बड़े सभी अधिकारों से है और यदि इस बात का सूक्ष्म तथा स्वतन्त्र विचार करें कि ये अधिकार किस को किस प्रकार प्राप्त होते हैं, तो ज्ञात होगा कि मनुष्य के साथ ही समाज और समाज के साथ ही मनुष्य को परमेश्वर ने उत्पन्न किया है, इसलिये जिसे जितना बुद्धिबल, सत्तावल, न्यवन या शरीरवल स्वभाव ही से हो अथवा स्वधर्म से प्राप्त कर लिया जा सके, उसी हिसाब से यथाशक्ति संसार के धारण और पोपण करने का थोड़ा बहुत. अधिकार (चातुर्वण्र्य आदि अथवा. अन्य गुण और कर्म-विभागरूप सामाजिक व्यवस्था से) प्रत्येक को जन्म से ही प्राप्त रहता है। किसी कल को, अच्छी रीति से चलाने के लिये बड़े चके के समान जिस प्रकार छोटे से पहिये की भी आवश्यकता रहती है। उसी प्रकार समस्त संसार की अपार घटनामों अथवा कार्यों के सिलसिले को ज्यवस्थित रखने के लिये प्यास आदिकों के बड़े अधिकार के समान ही इस बात की भी आवश्यकता है कि अन्य मनुष्यों के छोटे अधिकार भी पूर्ण और योग्य रीति से अमल में लाये जायें। यदि कुम्हार घड़े और जुलाहा कपड़े तैयार न करेगा, 1