पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३७५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । संपश्यन्' (गी. ३. २०)। इस प्रकार गीता में नो जरा लयी चौड़ी शब्दयोजना की गई है, उसका रहस्य भी वही है जिसका उल्लेख ऊपर किंग जा चुका है। लोक- संग्रह सचमुच महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है, पर यह न भूलना चाहिये कि इसके पहले श्लोक (गी. ३. १६) में अनालक बुद्धि से कर्म करने का भगवान् ने अर्जुन को जो उपदेश दिया है, वह लोकसंग्रह के लिये भी उपयुक्त है। ज्ञान और कर्म का जो विरोध है, वह ज्ञान और काम्य कर्मों का है। ज्ञान और निष्काम कर्म में आध्यात्मिक दृष्टि से भी कुछ विरोध नहीं है। कर्म अपरिहार्य हैं और लोकसंग्रह की दृष्टि से उनकी आवश्यकता मी बहुत है, इसलिये ज्ञानी पुरुप को जीवनपर्यन्त निस्सन बुद्धि से ययाधिकार चातुवयं के कर्म करते ही रहना चाहिये । यदि यही बात शास्त्रीय युक्तिप्रयुनियों से सिद्ध है और गीता का मी यही इत्यर्थ है, तो मन में यह शक्षा सहज ही होती है, कि वैदिक धर्म के स्मृतिप्रन्यों में वर्णित चार आश्रमों में से संन्यास आश्रम की क्या दशा होगी ? मनु आदि सव स्तृतियों में ब्रह्मचारी, गृहस्य, वानप्रस्थ और सन्यासी-ये चार आश्रम वतला कर कहा है कि अध्ययन, यज्ञ-याग, दान, या चातुर्वरार्य-धर्म के अनुसार प्राप्त अन्य कर्मों के शास्त्रोक्त आचरण द्वारा पहले तीन आयनों में धीरे-धीरे चित्त की शुद्धि हो जानी चाहिये और अन्त में समस्त कर्मों को स्वल्पतः छोड़ देना चाहिये तथा संन्यास ले कर मोक्ष प्राप्त करना चाहिये (मनु. ६.१ और ३३-३७ देखो)। इससे लव स्मृतिकारों का यह अभिप्राय प्रगट होता है, कि यज्ञ-याग और दान प्रभृति कर्म गृहस्थाश्रम में यद्यपि विहित हैं, तथापि चे सव चित्त की शुद्धि के लिये हैं, अर्थात् उनका यही उद्देश है कि विषयालाकि या स्वार्यपरायण-दि छुट कर परोपकार-वृद्धि इतनी बढ़ जावे कि प्राणियों में एक आत्मा को पहचानने की शक्ति प्राप्त हो जाय; और, यह स्थिति प्राप्त होने पर, मोक्ष की प्राप्ति के लिये अन्त में सब कमों का स्वरूपतः त्याग कर संन्यासाश्रम ही लेना चाहिये । श्रीशङ्कराचार्य ने कलियुग में जिस संन्यास-धर्म की स्थापना की, वह मार्ग यही है और सातमार्गवाले कालिदास ने भी खुवंश के आरम्म में शैशवेभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धक मुनिवृत्तीनाम् योगेनान्ते तनुत्यनाम् ।। " वालपन में अभ्यास (ब्रह्मचर्य) करनेवाले, तल्णावस्था में विषयोपमोगरूपी संसार (गृहस्थाश्रम) करनेवाले, उतरती अवस्था में मुनिवृत्ति से या वानप्रस्थ धर्म से रहनेवाले, और अन्त में (पाताल) योग से संन्यास धर्म के अनुसार ब्रह्माण्ड में श्रात्मा को ला कर प्राण छोड़नेवाले "-ऐसा, सूर्यवंश के पराक्रमी राजाओं का वर्णन किया है (खु. ३.८)।ऐसे ही महाभारत के शुकानुप्रश्न में यह कह कर, चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येषा प्रतिष्ठिता। एतामामा निःश्रेणी नहालोके महीयते ॥