पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३७७

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३३८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । भागवत में लिखा है, कि पहले दक्ष प्रजापति के हर्यश्वसंज्ञक पुत्रों को और फिर शवलाश्वसंज्ञक दूसरे पुत्रों छो मी, उनके विवाह से पहले ही, नारद ने निवृत्तिमार्ग का उपदेश दे कर भिक्षु बना डाला; इससे इस प्रशास्त्र और गई व्यवहार के कारण नारद की निर्भर्त्सना करके दक्ष प्रजापति ने उन्हें शाप दिया (भाग. ६५.३५-४२)। इससे ज्ञात होता है, कि इस आश्रम-व्यवस्था का मूल-हेतु यह था, कि अपना गाईस्थ्य जीवन यथाशास्त्र पूरा कर गृहस्थी चलाने योग्य, लड़कों के, सयाने हो जाने पर, बुढ़ापे की निरर्थक आशाओं से उनकी उमङ्ग के आड़े न पा निरा मोच' परायण हो मनुष्य स्वयं भानन्द पूर्वक संसार से निवृत्त हो जावे । इसी हेतु से विदुरनीति में घृतराष्ट्र से विदुर ने कहा है- उत्पाद्य पुत्रानणांश्च कृत्वा वृत्तिं च तेभ्योऽनुविधाय कांचित् । स्याने कुमारीः प्रतिपाद्य सर्वा अरण्यसंस्योऽथ भुनिभूपेत् ।। गृहस्थाश्रम में पुत्र उत्पन्न कर, उन्हें कोई ऋण न छोड़ और उनकी जीविका के लिये कुछ थोड़ा सा प्रवन्ध कर, तथा सब लड़कियों को योग्य स्थानों में दे चुकने पर, वानप्रस्थ हो संन्यास लेने की इच्छा करे" (ममा. उ. ३६. ३६) आज कल हमारे यहाँ साधारण लोगों की संसार-सम्बन्धी समझ भी प्रायः विदुर के कथना- नुसार ही है। तो मी कभी न कभी संसार को छोड़ देना ही मनुष्य मान का परम साध्य मानने के कारण, संसार के व्यवहारों की सिद्धि के लिये स्मृतिप्रणेताओं ने जो पहले तीन आश्रमों की श्रेयस्कर मर्यादा नियत कर दी थी, वह धीरे धीरे चूटने लगी; और यहाँ तक स्थिति आ पहुँची, कि यदि किसी को पैदा होते ही अथवा अल्प अवस्था में ही ज्ञान की प्राप्ति हो जावे, तो उसे इन तीन सीढ़ियों पर चढ़ने की आवश्यकता नहीं है, वह एकदम संन्यास ले तो कोई हानि नहीं-'ब्रह्मचर्यादेव प्रवजेगृहाद्वा वनाद्वी' (जावा. ४) ! इसी अभिप्राय से महाभारत के गोकापि- लीय-संवाद में कपिल ने स्यूमरश्मि से कहा है- शरीरपक्तिः कर्माणि ज्ञानं तु परमा गतिः । कपाये कर्मभिः पक्के रसाने च तिष्ठति ॥ * "सारे कर्म शरीर के (विषयासक्तिरूप) रोग निकाल फेकने के लिये हैं, ज्ञान ही सब में उत्तम और अन्त की गति है। जव कर्म से शरीर का कपाय अथवा अज्ञान- रूपी रोग नष्ट हो जाता है तब रस-ज्ञान की चाह उपजती है" (शा. २६.३८)। इसी प्रकार मोक्षधर्म में, पिङ्गलगीता में भी कहा है, कि “ नैराश्यं परमं सुखं" अथवा " योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्ता तृप्णां त्यजतः सुखम् "-तृष्णारूप प्राणा- वेदान्तसूत्रों पर जो शाङ्करभाष्य है, (३. ४.२६ ) उसमें यह श्लोक लिया गया है। वहाँ इसका पाठ इस प्रकार है:- "कपायपक्तिः कर्माणि शनं तु परमा गतिः । कपाय कर्ममिः पके ततोशानं प्रवर्तते ।। महामारत में हमें यह शोक नैसा मिला है हमने यहाँ होले लिया है।