विपयप्रवेश। ३ . (महाभारत ) में नहीं है, तथापि यह गीता की सभी प्रतियों में पाया जाता है। इससे अनुमान होता है कि गीता की किसी भी प्रकार की टीका होने के पहले ही, जब वह महाभारत से नित्य पाठ के लिये अलग निकाल ली गई होगी तभी से उक्त संकल्प का प्रचार हुमा होगा । इस दृष्टि से, गीता के तात्पर्य का निर्णय करने के कार्य में उसका महत्व कितना है यह आगे चल कर बताया जायगा । यहाँ इस संकल्प के केवल दो पद (भगवद्गीतासु उपनिषत्सु) विचारणीय हैं। उपनिपत्' शब्द हिन्दी में पुडिंग माना जाता है,परन्तु वह संस्कृतमखीलिंग है इसलिये "श्रीभग- वान् से गाया गया अर्थात् कहा गया उपनिपद् " यह अर्थ प्रगट करने के लिये संस्कृत में श्रीमद्भगवद्गीता उपनिपत" ये दो विशेषण-विशेष्यरूप स्त्रीलिंग शब्द प्रयुक्त हुए हैं और यधपि ग्रंथ एक ही है तथापि सम्मान के लिये “ श्रीमद्भगवद्गीतासूप- निपत्सु " ऐसा सप्तमी के बहुवचन का प्रयोग किया गया है। शंकराचार्य के भाष्य में भी इस ग्रंथ को लक्ष्य करके 'इति गीतासु' यह बहुवचनान्त प्रयोग पाया जाता है। परन्तु नाम को संक्षिप्त करने के समय पादरसूचक प्रत्यय, पद तथा संत के सामान्य जातिवाचक • उपनिषत् ' शब्द भी उड़ा दिये गये, जिससे श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषत् ' इन प्रथमा के एकवचनान्त शब्दों के बदल पहले भगवद्गीता' और फिर केवल 'गीता' ही संक्षिप्त नाम प्रचलित हो गया ऐसे बहुत से संक्षिप्त नाम प्रचलित है जैसे कठ, छांदोग्य, केन इत्यादि। यदि उपनिषत् ' शब्द मूल नाम में न होता तो 'भागवतम्, भारतम् , "गोपीगीतम्' इत्यादि शब्दों के समान इस ग्रंथ का नाम भी भगवद्गीतम् या केवल 'गीतम् ' बन जाता जैसा कि नपुं- सकलिंग के शब्दों का स्वरूप होता है परन्तु जयकि ऐसा हुआ नहीं है और 'भगवद्गीता' या 'गीता' यही स्त्रीलिंग शब्द अब तक बना है, तब उसके सामने — उपनिषत् ' शब्द को नित्य अध्याहृत समझना ही चाहिये । अनुगीता की अर्जुन मिश्रकृत टीका में 'मनुगीता' शब्द का अर्थ भी इसी रीति से किया गया है। परन्तु सात सौ श्लोक की भगवद्गीता को ही गीता नहीं कहते । अनेक ज्ञान- विषयक ग्रंप भी नीता कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, महाभारत के शांतिपर्वांतर्गत मोतपर्व के कुछ फुटकर प्रकरणों को पिंगलगीता, शंपाकगीता, मांकिगीता, वोध्यगीता, विचस्युगीता, हारीतगीता,नगीता,पराशरगीता और ईसगीता कहते हैं। अश्वमेध- पर्व में मनुगीता के एक भाग का विशेष नाम 'मालाणगीता' है। इनके सिवा अवधूतगीता, अष्टावक्रगीता, ईश्वरगीता, उत्तरगीता, कपिलगीता, गणेशगीता, देवांगीता, पांडवगीता, ब्रह्मगीता, मिक्षुगीता, यमगीता, रामगीता, व्यासगीता, शिवगीता, सूतगीता, सूर्यगीता इत्यादि अनेक गीताएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें से कुछ तो स्वतंत्र रीति से निर्माण की गई है और शेष भिम मिन पुराणों से ली गई हैं। जैसे, गणेशपुराण के अन्तिम क्रीडाखंड के १३८ से १४८ अध्यायों में गणेशगीता कही गई है। इसे यदि थोड़े फेरफार के साथ भगवद्गीता की नकल कहें तो कोई हानि नहीं । कूर्मपुराण के उत्तर भाग के पहले ग्यारह अध्यायों में ईश्वरगीता है।
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