सिद्धावस्था और व्यवहार । निष्काम अवस्था भी गीता को मान्य है, तथापि गीता को संन्यासमार्ग का यह कर्म-सम्बन्धी मत प्राय नहीं है कि मोश-प्राति के लिये सन्त में कमा को एकदम छोड़ ही बैठना चाहिये । पिछले प्रकार में हमने विस्तार सहित गीता का यह विशेष सिद्धान्त दिखलाया ई कि ग्रामज्ञान से प्रात होनेवाले पैराग्य अथवा समता से ही ज्ञानी पुरुष को ज्ञान प्राप्ति हो चुकने पर भी सारे व्यवहार करते रहना चाहिये। जगत से शानयुफ फर्म को निकाल लालें तो दुनिया अन्धी हुई जाती है और इससे उसका नाश हो जाता है जब कि भगवान की ही इच्छा है कि इस रीति से उसका नाश न हो, पह भली भांति चलती रहे। पर ज्ञानी पुरुष को भी जगत् के सभी पर्म निष्कान पुदि से फरते हुए सामान्य लोगों को सच्चे याच का प्रत्यक्ष नमूना दिसला देना चाहिये । इसी मार्ग को अधिक श्रेयस्कर और माय कई, तो यह देखने की जरूरत पड़ती है कि इस प्रकार का ज्ञानी पुरुप जगत के गवहार किस प्रकार फरता है । क्योंकि से ज्ञानी पुगप का व्यवहार भी लोगों के लिये 'लादर्श है। उसके कर्म करने की रीति को परख लेने से धनराधर्म, कार्यकार्य प्रथया कर्तव्य-अकर्तव्य फा निर्णय कर देनेवाला साधन गा दुनि-जिसे हम खोज रहे थे साप ही श्राप 'धमारे क्षय लग जाती है । संन्यासमार्ग की अपेक्षा कर्मयोगमार्ग से यही तो विशेषता है । इन्मियों का निमा करने से मिस पुरुप की व्यवसायात्मक बुद्धि स्थिर हो पार " सय भूतों में एक माला "स साम्य पो पर लेने में समर्थ हो जाय, उसकी पालना भी शुद्ध ही होती है और इस प्रकार वासनात्मक बुद्धि के शुन्छ, लम, निर्मम तौर पक्ति को जाने से फिर वह कोई भी पाप या नोक्ष के लिये प्रतिवन्धक कर्म भार ही नहीं सपा । फ्योति पहले वासना है फिर तदनुशल कर्मः जय कि कार लाई तव शुद्ध पासगा से होनेवाला कर्म शुद्ध ही होगा, और जो शुद्ध चही मोक्ष के लिये शगुकूल है । प्रर्यान् समारं मागे जो ‘कर्म- पकन-पिचिकित्सा' या मार्गापार्यन्व्यवस्पिति' का विफ्ट मश था कि पार- लौफिक दल्यागा के मार्ग पाड़े न पा पार इस संसार में मनुष्यमान को कैसा चताप करना चाहिये, उसका सपनी करनी से प्रत्यक्ष उत्तर देनेवाला गुरु अब इन मिल गया (ते. १. 11.1 गी. ३. २१) । अर्जुन के आगे ऐसा गुरु श्रीकृष्ण के रूप में प्रत्यक्ष खड़ा था | जय अर्जुन पो यद्द शक्षा हुई कि 'क्या ज्ञानी पुरुप युद्ध यादि कमी को बन्धनकारक समझ कर छोड़ दे,' तय उसको इस गुरु ने दूर वहा दिया और अध्यात्मशारा के सहारे अर्जुन को भली भांति समझा दिया कि जगद के व्यवहार किस युक्ति से फरते रहने पर पाप नहीं लगता; अतः वह युद्ध के लिये प्रवृत्त हो गया। किन्तु ऐसा चोखा झाग लखा देनेपाले र प्रत्येक मनुष्य को जय चाहे तव नहीं मिल सकते; और तीसरे प्रकरण के अन्त में, "महाजनो येन गतः स पन्याः" इस बचा का विचार करते हुए इन यतका माये है कि ऐसे महापुरुषों के निरे उपरी वाय पर बिलकुल अवलम्बित रह भी नहीं सकते । अतएव जगत् को अपने पाचरण से शिक्षा देनेवाले इन नानी पुरुषों के पतीव की बड़ी चारीकी
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