पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४२२

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सिद्धावस्था और व्यवहार । ३८३ फाम की योग्यता-सयोग्यत्त का विचार करने में कर्म के बाद परिणाम की अपेक्षा फर्ता को पुद्धि पर ही योग्य ष्टि रखनी चाहिये । गीता का संक्षेप में यह सिद्धान्त कहां जा सकता है कि कोरे जड़ फर्म में ही नीतिमत्ता नहीं, किन्तु कर्ता की पद्रि पर वह सर्वथा सवलम्बित रहती है। आगे गीता (८.२५) में ही कहा ई कि इस प्राध्यात्मिक तत्व के ठीक सिद्धान्त को न समझ कर, यदि कोई मनमानी फरने लगे, तो उस पुरुप को राक्षस, पा तामसी पुद्धिवाला कहना चाहिये । एक भार समबन्दि हो जाने से फिर उस पुरुष को कर्तव्य-सकर्तव्य का और अधिक उप- देश नहीं करना पड़ता; इसी तत्व पर ध्यान दे कर साधु नुफाराम ने शिवाजी महा- राम पो जो यह उपदेश किया कि " इसका एक ही कल्यागाफारक अर्थ यह है कि प्रागिामान में एक प्रात्मा को देखो, "इसमें भी भगवनीता के अनुसार कर्मयोग का एक ही सत्य बतलाया गया है। यहां फिर भी कर देना उचित है कि यपि साम्पति ही सदाचार का बीज हो, तथापि इससे यह भी अनुमान न करना चाहिये कि जब तक इस प्रकार की पूर्ण शुदबुद्धि न हो जाये तब तक कर्म करने- चाला सुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे । स्थितप्रज्ञ के समान बुद्धि कर लेना तो परम ध्येय । परन्तु गीता के बारम्भ (२.४०) में ही यह उपदेश किया गया है कि इस परम ध्येय के पूर्णतया सिन्द होने तक प्रतीक्षा न करके, जितना हो सके उतना ही. निफामयादि से प्रत्येक मनुष्य अपना कम परतार इसी से युति अधिक अधिक शुद्ध होती चली जायगी और अन्त में पूर्ण सिद्धि हो जायगी। ऐसा पाग्रह करके समय को मुफ्त न गा दे कि जब तक पूर्ण सिद्धि पान गाऊँगा तब तक फर्म करंगा ही नहीं। • सर्वभूतहित ' अथवा 'अधिकांश लोगों के प्रधिक कल्यागा -याला नीति- तप केवल यार कर्म को उपयुक्त होने के कारण शाखाग्राही और परन्तु यह 'प्राणिमान में एक सात्मा' वाली रिपतमा की 'साम्य-बुद्धि' मूलग्राही है, और इसी को नीति-निर्णय के काम में श्रेष्ठ मानना चाहिये । यपि इस प्रकार यह यात सिद्ध हो चुकी, तथापि इस पर कई एकों के आक्षेप है कि इस सिद्धान्त से न्यायहारिक याय की उपपत्ति टीक ठीक नहीं लगती। ये शादेप प्रायः संन्यास- गार्गी स्थितप्रज्ञ के संसारी व्यवहार को देख कर ही इन लोगों को सूझे हैं। किन्तु थोड़ा सा विचार करने से किसी को भी सहज ही देख पढ़ेगा कि पाप स्थित- प्रज्ञ कर्मयोगी के बर्ताव को उपयुक्त नहीं होते । और तो क्या, यह भी कह सकते है कि प्राणिमात्र में एक प्रात्मा प्रयवा श्रात्मौपग्य-शुद्धि के तप से व्यावहारिक नीतिधर्म की जैसी परछी उपपत्ति लगती है, वैसी और किसी भी ताव से नहीं लगती। उदाहरण के लिये उस परोपकार धर्म को ही लीजिये कि जो सब देशों में और सब नीतिशास्त्रों में प्रधान माना गया है । दूसरे का प्रात्मा ही मेरा प्रात्मा है। इस अध्यात्म ताव से परोपकार धर्म की जैसी उपपत्ति लगती है, वैसी किसी भी प्राधिभौतिकवाद से नहीं लगती ।यहुत हुआ तो, आधिभौतिक शास्त्र इतना कृपा है।