" ३६६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । से हो सकता हो, तो पहल साधुता से ही करे। क्योंकि दूसरा यदि दुष्ट हो तो उसी के साथ हमें भी दुष्ट न हो जाना चाहिये यदि कोई एक नकटा हो जाय तो सारा गाँव का गाँव अपनी नाक नहीं कटा लेता! और क्या कहें, यह धर्म है भी नहीं। इस " न पापै प्रतिपापः स्यात् " सूत्र का ठीक भावार्थ यही है और इसी कारण से विदुरनीति में धृतराष्ट्र को पहले यही नीतितत्व बतलाया गया है कि "नतम सत्य संध्या प्रतिकूलं यदात्मनः " जैसा व्यवहार स्वयं अपने लिये प्रतिज्ञ मालूम हो, बसा वर्ताव दूसरों के साथ न करे। इसके पश्चात ही विदुर ने कहा है- अनोवेन जयेक्रोधं असाधु साधुना जयेत् । जयेत्कदर्य दानन जयेत् सत्येन चानृतम् ।। (दूसरे के) फ्रोध को (अपनी) शान्ति से जीते, दुष्ट को साधुता से जीत,कृपा को दान से जीत और अनृत को सत्य से जीत " (ममा. उद्यो. ३८. ७३, ७)। पाली भाषा में बौद्धों का जो धम्मपद नामक नीतिप्रन्य है, उसमें (२२३) इसी लोक का हूबहू अनुवाद ई- अकोपेन जिने कोर्ष असाधु साना तिने । लिने कदरियं दानेन सच्चेनालीकवादिनम् ॥ शान्तिपर्व में युधिष्टिर को उपदेश करते हुए भीष्म ने भी इसी नीति-चत्र के गौरव का वर्णन इस प्रकार किया है- कर्म चैतदसाधूनां असावू साधुना जयेत् । धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा ॥ "दुष्ट की असाघुता, मर्याद दुष्ट कर्म, का साधुता से निवारण करना चाहिय क्योंकि पाप कर्म से जीत लेने की अपेक्षा धर्म से भयात् नीति से मर आना भी श्रेयस्कर ई" (शां. ६५. ६) । किन्तु ऐसी साधुता से यदि दुष्ट के दुष्कर्मों का निवारण र होता हो, अथवा साम-उपचार और मेल-जोल की बात दुष्टों को नापसन्द हो तो,जो काँटा पुलिस से बाहर न निकलता हो, यसको कण्टकनैव कएटकन " के न्याय से साधारण काँटे से अथवा लोई के कॉटे-सुई-से.ही बाहर निकाल दालना भावश्यक है (दास. १६.६.१२-३१)क्योंकि, प्रत्येक समय, लोकसंग्रह के लिये दुष्टों का निप्रह करना, भगवान् के समान, धर्म की दृष्टि से साधु पुरुषों का भी पहला कर्तव्य है।" साधुता से दुष्टता को जीते " इस वाक्य में ही पहले यही बात मानी गई है कि दुष्टता को जीत लेना अथवा उसका निवारण करना साधु पुरुष का पहला कर्त्तव्य है, फिर उसकी सिद्धि के लिये बतलाया है कि पहले किस उपाय की योजना करे । यदि साधुता से रसका निवारण न हो सकता हो, सीधी अंगुली से घी न निकले तो जैसे को तैसा" बन कर दुष्टता का निवारण करने से हमें, हमारे धर्मग्रन्यकार कमी भी नहीं रोकते; वे यह कहीं भी प्रतिपादन वहीं करने कि दुष्टता के आगे साधु पुरुष अपना बलिदान बुशी से किया करें । सदा
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