४०२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कर, सव को धीरे धीरे यथासम्भव शान्ति से किन्तु उत्साहपूर्वक उन्नति के मार्ग में लगावे; बस, यही ज्ञानी पुरुष का सच्चा धर्म है। समय-समय पर अवतार ले कर भगवान् भी यही काम किया करते हैं और ज्ञानी पुरुष को भी यही आदर्श मान फल पर ध्यान न देते हुए इस जगत् का अपना कर्तव्य शुद्ध भाद निष्कामवृद्धि से सदैव यथाशक्ति करते रहना चाहिये । गीताशास्त्र का सारांश यही है कि इस प्रकार के कर्तव्य-पालन में यदि मृत्यु भी आ जाये तो बड़े अानन्द से उसे स्वीकार कर लेना चाहिये (गी. ३.३५)-अपने कर्तव्य अर्याद धर्म को न छोड़ना चाहिये । इसे ही नोकसंग्रह अथवा कर्मयोग कहते हैं । न केवल वेदान्त ही, वरन् उसके आधार पर साथ ही साथ कर्म-भकर्म का ऊपर लिखा हुमा ज्ञान भीजत्र गीता में बताया गया, तभी तो पहले युद्ध छोड़ कर भीख मांगने की तैयारी करनेवाला अर्जुन भागे चल कर स्वधर्म अनुसार युद्ध करने के लिये सिर्फ इसी लिये नहीं कि भगवान् कहते हैं, वरन् अपनी राजी से-प्रवृत्त हो गया। स्थितप्रज्ञ की साम्यबुद्धि का यही तस्व, कि जिसका अर्जुन को उपदेश हुआ है, कर्मयोगशास्त्र का मूल भाधार है । अतः इसी को प्रमाण मान, इसके आधार से हमने बतलाया है कि पराकाष्टा की नीतिमत्ता की उपपत्ति क्योंकर लगती है-1. हमने इस प्रकरण में कर्मयोगशास्त्र की इन मोटी-मोटी बातों का संक्षिप्त निरूपण किया है कि भात्मौपम्य-दृष्टि से समाज में परस्पर एक दूसरे के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये जैसे को तैसा वाले न्याय से अथवा पात्रता-अपात्रता के कारण सब से बढ़े-बढ़े हुए नीति-धर्म में कान से भेद होते हैं, अथवा अपूर्ण अवस्या के समाज में वर्तनेवाले साधु पुरुष को भी अपवादात्मक नीति-धर्म कैसे स्वीकार करने पड़ते हैं। इन्हीं युक्तियों का न्याय, परोपकार, दान, दया, अहिंसा, सत्य और अस्तेय आदि नित्यधों के विषय में उपयोग किया जा सकता है । मान कल की भपूर्ण समाज-व्यवस्था में यह दिखलाने के लिये कि प्रसंग के अनुसार इन नीति- धर्मों में कहाँ और कौन सा फर्क करना ठीक होगा, यदि इन धर्मों में से प्रत्येक पर. एक-एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा जाय तो भी यह विषय समास न होगा; और यह भगवद्गीता का मुख्य उद्देश भी नहीं है। इस अन्य के दूसरे ही प्रकरण में इसका दिग्दर्शन करा भाये हैं कि हिंसा और सत्य, सत्य और आत्मरक्षा, आत्मरक्षा और शान्ति आदि में परस्पर विरोध हो कर विशेष प्रसंग पर कर्त्तन्य-अकर्तव्य का सन्देह उत्पन्न हो जाता है। यह निर्विवादई कि ऐसे अवसर पर साधु पुरुष नीति- धर्म, लोकयात्रा-व्यवहार, स्वार्थ और सर्वभूतहित" आदि बातों का तारतम्य- विचार करके फिर कार्य-अकार्य का निर्णय किया करते हैं और महामारत में श्येन ने शिवि राजा को यह वात स्पष्ट ही बतला दी है। सिविक नामक अंग्रेज अन्य- कार ने अपने नीतिशास्त्र विषयक अन्य में इसी अर्थ का विस्तार सहित वर्णन अनेक उदाहरण ले कर किया है। किन्तु कुछ पश्चिमी पण्डित इतने ही से यह अनु. मान करते हैं कि स्वार्थ और परार्थ के सार-प्रसार का विचार करना ही नीति-
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