४०४ गीतारहस्य अपवा कर्मयोगशाला के लिये ज्ञानी साधु पुरुषों की ही शरण में जाना चाहिये। कोई भयर रोग होने पर जिस प्रकार विना वैद्य की सहायता के उसका निदान और उसकी चिकित्सा नहीं हो सकती, उसी प्रकार धर्म-अधर्म-निर्णय के विकट प्रसङ्ग पर यदि कोई सत्पुरुषों की मदद न ले, और यह अभिमान रखे कि मैं अधिकांश लोगों के अधिक सुख-' वाले एक ही साधन से धर्म-अधर्म का अचूक निर्णय प्राप ही कर लूँगा, तो उसका यह प्रयत्न व्यर्थ होगा । साम्यबुद्धि को बढ़ाते रहने का अभ्यास प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिये और इस क्रम से संसार भर के मनुष्यों की बुद्धि जब पूर्ण साम्य अवस्था में पहुँच जावेगी तभी सत्ययुग की प्रालि होगी तथा मनुष्य जाति का परम साध्य प्राप्त होगा अथवा पूर्ण अवस्था सब को प्राप्त हो जायेगी । कार्य- अकार्य-शास्त्र की प्रवृत्ति भी इसी लिये हुई है और इस कारण उसकी इमारत को भी साम्यवृद्धि की ही नींव पर खडा करना चाहिये । परन्तु इतनी दूर न जा कर यदि नीतिमत्ता की केवल लौकिक सौटी की दृष्टि से ही विचार करें तो भी गीता का साम्य बुद्धिवाला पन ही पाश्चात्य आधिभौतिक या आधिदैवत पन्थ की अपेव । अधिक योग्यता और मार्मिक सिद्ध होता है। यह वात आगे पन्द्रहवें प्रकरण में की गई तुलनात्मक परीक्षा से स्पष्ट मालूम हो जायगी। परन्तु गीता के तात्पर्य के निरूपण का जो एक महत्वपूर्ण भाग अभी शेष है, उसे ही पहले पूरा कर लेना चाहिये।
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४४३
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