पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४५०

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भक्तिमार्ग। करना होता है, वह दूसरी श्रेणी को, अर्थात् उपाय और उपासक के भेद से मन को गोचर होनेवाला, यानी सगुण ही होता है और इसी लिये उपानेपदों में जहाँ जहाँ ब्रह्मा की उपासना कही गई है, वहाँ वहां उपास्य ग्रह के अव्यक्त होने पर भी सगुगारूप में ही इसका वर्णन किया गया है । उदाहरणार्थ, शाण्डिल्य- विधा में जिस प्रस की उपासना कही गई है वह यद्यपि अव्यक अर्थात् निराकार है; तथापि छांदोग्योपनिपद् (३. १४) में कहा है, कि वह प्राण-शरीर, सत्य-संकल्प, सवंगंध, सरस, सर्वकर्म, अर्थात् मन को गोचर होनेवाले सव गुणों से युक्त हो। स्मरण रहे कि यहाँ उपास्य मा यद्यपि सगुण है, तथापि वह अन्यक्त अर्थात् निराकार है। परन्तु मनुष्य के मन झी स्वाभाविक रचना ऐसी है कि, सगुण वस्तुत्रों में से भी जो वस्तु अव्यक हेती है प्रथांत जिसका कोई विशेष रूपग ग्रादि नहां और इसलिये जो नेत्रादि इन्द्रियों को अगोचर है उस पर प्रेम रखना या हमेशा उसका चिन्तन कर मन उसी में स्थिर करके वृत्ति को तदा- कार करना मनुष्य के लिये बहुत काठन और दुःपाध्य भी है । क्योंकि, मन स्वभाव ही से चंचल है इसलिये जब तक मन के मामने आधार के लिये कोई इन्द्रियगोचर स्थिर वस्तु न हो, तब तक यह मन धारपार भूल जाया करता है कि स्थिर कहाँ होना है। वित्त को स्थिरता का यह मानषिक कार्य बड़े बड़े ज्ञानी पुरुषों को भी दुष्कर प्रतीत होता है तो फिर साधारण मनुष्यों के लिये कहना ही पया? अतएव रेखागागीत के सिद्धान्तों को शिक्षा देत पमय जिस प्रकार ऐसी रेखा की कल्पना करने के लिये, कि जो अनादि, अनन्त और बिना चौडाई की (अध्यक्त) है, किन्तु जिसमें लम्पाई का गुण होने से सगुण है, उस रेखा का एक छोटा सा नमूना प्लेट या तख्ते पर व्यक करके दिखलाना पड़ता है। उसी प्रकार ऐसे 'परमेश्वर पर प्रेम करने और उसमें अपनी वृत्ति को लान करने के लिये, कि जो सर्व- कत्ता, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ (प्रतएव सगुण) है, परन्तु निराकार अर्थात अन्यक्त है, मन के सामने प्रत्यक्ष' नाम-रूपात्मक किसी वस्तु के रहे बिना साधारण मनुष्यों का काम चल नहीं सकता । यही क्यों पहले किसी व्यक्त पदार्थ के देखे. बिना मनुष्य के मन में अव्यक्त की कल्पना हो जागृत हो नहीं सकती । उदाहरणार्थ, 'जय इम लाल, हरे इत्यादि अनेक व्यक्त रंगों के पदार्थ पहले आँखों से देख लेते हैं 'तमी रंग' की सामान्य और अन्यक कल्पना जागृत होती है। यदि ऐसा न हो तो इस विषय पर एक लोक जी यांगवामिष्ठ का कश जाता है:- अक्षरावगमलब्धये यथा स्यूलचतुलपत्परिग्रहः । शुद्ध युद्धपरिलब्धये तथा दारुमण्मयशिलामयार्चनम् ।। क्षरों का परिचय कराने के लिये लड़कों के सामने जिस प्रकार छोटे छोटे कंकड़ रख कर अक्षरों का आकार दिखलाना पड़ता है, उसी प्रकार (नित्य) शुद्धबुध परमध का धान होने के लिये लाड़ी, गिटी या पत्थर यो मूर्ति का स्वीकार किया जाता है। परन्तु यह लोक गृपतयोगवासिष्ठ में नहीं मिलता। .

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