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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४५५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । राजविधा राजगुध पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धर्य सुसुख कर्तुमव्ययम् ॥ ध्यात्, यह भनिमार्ग " सब विद्याओं में और गुलों में श्रेष्ठ (राजविद्या और राजगुल) है। यह उत्तम पवित्र, प्रत्यक्ष देख पड़नेवाना, धानुकूल, सुख से धाचरण करने याग्य और अक्षय है" (गी. ६.२)। इस श्लोक में राजविद्या शोर राजगुस्सा, दोनों सामासिक शब्द इनका विग्रह यह है-'विद्यानां राजा' और गुणानां राजा' (अर्थात् विद्याओं का राजा और गुणों का राजा ); और जब समास हुना तत्र संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार 'राज' शब्द का उपयोग पहले किया गया। परंतु इसके बदले कुछ लोग राज्ञां विद्या' (राजाओं की विद्या ) ऐसा विग्रह करते हैं और कहते है, कि योगवासिष्ठ (२.११. १६-१८) में जो वर्णन है उसके अनुसार जब प्राचीन समय में अपों ने गजाओं को ब्रह्मविद्या का उपदेश किया तब से ब्रह्मविद्या या अध्यात्मज्ञान ही को राजविद्या और राजगुह्य कहने लगे हैं, इसलिये गीता में भी इन शब्दों से वही अर्थ यानी अध्यात्मज्ञान-भक्ति नहीं लिया जाना चाहिये । गीना-प्रतिपादित मार्ग भी मनु, इक्ष्वाकु प्रति राज- परम्परा ही से प्रवृत्त हुआ है (गी ४.१); इसनिये नहीं कहा जा सकता, कि गीता में राजविद्या' और राजगुल' शब्द रजाणे की विद्या' और 'राजाओं का गुप' यानी राजमान्य विधा और गुण-के अर्थ में उपयुक न हुए हों। परन्तु इन अर्थों को मान लेने पर भी यह ध्यान देने योग्य बात है, कि इस स्थान में ये शब्द ज्ञानमार्ग के लिये उपयुक्त नहीं हुए हैं। कारगा यह है, कि गीता के जिस अध्याय में यह लोक पाया है उसमें भक्तिमार्ग का ही विशेष प्रतिपादन किया गया है (गी. ६. २२-३१ देखा); यद्यपि अन्तिम साध्य ग्रन एक ही है,- तथापि गीता में ही अध्यात्मविद्या का साधनात्मक ज्ञानमार्ग केवल 'बुद्धिगम्य' प्रतएव अन्यक' और 'दुःखकारक ' कहा गया है (गी. १२.५); ऐसी अवस्था में यह असम्भव नान पड़ता है, कि भगवान् अब उसी ज्ञानमार्ग को प्रत्यक्षा. वगम' यानी व्यक्त और 'कर्नु सुसुखं यानी आचरण करने में सुखकारक कहेंगे। अतरव प्रकरण की साम्यता के कारण, और केवल भकि-मार्ग ही के लिये सर्वथा उपयुक्त होनेवाले प्रत्यक्षावगमं ' तथा ' क सुसुखं पदों की स्वारस्य-सत्ता के कारण, अर्थात् इन दोनों कारणों से-यही सिद्ध होता है कि इस श्लोक में 'राजविद्या शब्द से भक्तिमार्ग ही विवक्षित है। विद्या' शब्द कंवल ब्रह्मज्ञान, सूचक नहीं है, किन्नु परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेने के जो साधन या मार्ग हैं उन्हें भी उपनिपदों में विद्या' ही कहा है। उदाहरणार्थ, शारोिडल्याविद्या, प्राणविद्या, हादविद्या इत्यादि । वेदान्तसूत्र के तीसरे अध्याय के तीसरे पाद में, उपानेपदों में वर्णित ऐसी अनेक प्रकार की विधाओं का अयांत साधनों का विचार किया गया है। उपनिपदों से यह भी विदित होता है कि प्राचीन समय में ये सब