पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४५७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख। ऊपर किये गये विवेचन से पाठकों के ध्यान में यह बात आ जायगी कि मा- मार्ग किसे कहते हैं, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग में समानता तथा विषमता क्या है, भक्तिमार्ग को राजमार्ग (राजविद्या) या सहज उपाय क्यों कहा है, और गीता में भक्ति को स्वतन्त्र निष्ठा क्यों नहीं माना है। परन्तु ज्ञान-प्राप्ति के इस सुलभ, अनादि और प्रत्यक्ष मार्ग में भी धोखा खा जाने की एक जगह है, उसका भी कुछ विचार किया जाना चाहिये, नहीं तो सम्भव है कि इस मार्ग से चलनेवाला पपिक असा- वधानता से गढ्ढे में गिर पड़े। भगवद्वीता में इस गड्ढे का स्पष्ट वान किया गया और वैदिक भकिमार्ग में अन्य मक्ति-मागों की अपेक्षा जो कुछ विरोपता है, वह यही है । यद्यपि इस बात को सब लोग मानते हैं कि परब्रह्म में मन को आसक करके चित्त-शुद्धि-द्वारा साम्ययुद्धि की प्राप्ति के लिये साधारण मनुन्यों के सामने परब्रह्म के प्रतीक के नाते से कुछ न कुछ सगुण और व्यक्त वस्तु अवश्य होनी चाहिये-नहीं तो चित्त की स्थिरता हो नहीं सकती; तथापि, इतिहास से देत पड़ता है कि इस प्रतीक' के स्वरूप के विषय में अनेक बार झगड़े और वेनेड़े हो जाया करते हैं। अध्यात्मशाख की दृष्टि से देखा जाय तो इस संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं कि जहाँ परमेश्वर न हो। भगवद्गीता में भी जब अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा " तुम्हारी किन किन विभूतियों के रूप से, चिन्तन (भजन) किया जावे, सो मुझे बतलाइवे" (गी. १०.१८) तब दसवें अध्याय में भगवान ने इस त्यावर और जंगम सृष्टि में न्यात अपनी अनेक विभूतियों का वर्णन करके कहा है कि मैं इन्द्रियों में मन, स्थावरों में हिमालय, यज्ञों में जपयज्ञ, सपा में वापुति दैत्यों में प्रह्लाद, पितरों में अर्यमा, गन्धर्षों में चित्ररय, वृक्षों में अश्वत्यः पवियों में गरुड़, महर्षियों में भूश, अक्षरों में प्रकार और आदित्यों में विष्णु है। और अन्त में यह कहा- यद्यद्विभूतिमत् सत्वं श्रीमदूजितमेव वा । तत्चदेवावगन्छ त्वं मम तेजोशसंभवम् ।। है अर्जुन ! यह जानो कि जो कुछ वैभव, लक्ष्मी और प्रमाव से युक हो वह मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुआ है " ( १०.११) और अधिक क्या कहा जाय? मैं अपने एक अंश मान से इस सारे जगत में व्याप्त हूँ! इतना कह कर अगले अध्याय में विश्वरूपदर्शन से अर्जुन को इसी सिद्धान्त की प्रत्यक्ष प्रतीति मी करा दी है। यदि इस संसार में दिखलाई देनेवाले सब पदापं या गुण परमेश्वर ही के रूप यानी प्रतीक हैं, तो यह कान और कैसे कह सकता है कि उनमें से किसी एक ही में परमेश्वर है और दूसरे में नहीं? न्यायतः यही कहना पड़ता है कि वर दूर है और समीप भी है, सत् और असत् होने पर भी वह उन दोनों से परे है अथवा गरुड़ और सर्प. मृत्यु और मारनेवाला, विनकर्ता और बिनहर्ता, भयरुद और भयनाशक, घोर और अघोर, शिव और अशिव, वृष्टि करनेवाला और उसको