पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४८७

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४४८ गीतारहस्य अयबा कर्मयोगशाख । हैं केवल स्वत्तव्य समझ कर ही कुछ काम किया जाता है, तब उस कर्म के पार पुण्य का लेप की को नहीं होता; इसलिये न इस समबुद्धि का आनय कर; इस समबुद्धि को ही योग–अर्यात् पाप के भागी न होते हुए कर्म करने की युति कहते हैं। यदि तुझे यह योग सिद्ध हो जाय तो कर्म करने पर भी नुझे मोक्ष की प्राति हो जायगी; मोन के लिये कुछ कमन्संन्यास की आवश्यकता नहीं है (२.४७-५३) जब भगवान् ने अर्जुन से कहा, कि जिस मनुष्य की बुद्धि इस प्रकार सन हो गई हो उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं (२.५३); तर अर्जुन ने पूछा कि "महाराज ! कृपा कर यतलाइये कि स्थितप्रज्ञ का वर्ताव कैसा होता है?' इस लिये दूसरे अध्याय के अन्त में स्थितप्रज्ञ का वान किया गया है और अन्त में कहा गया है कि स्थितप्रज्ञ की स्थिति को ही ब्राह्मी स्थिति कहते हैं । सारांश यह है कि अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिये गोता में जो उपदेश दिया गया है उसका प्रारम्भ उन दो निटानों से ही किया गया है कि जिन्हें इस संसार के ज्ञानी मनुष्यों ने प्राय माना है और जिन्हें कम छोड़ना (सांख्य) और 'कर्म करना (योग) कहते हैं तथा युद्ध करने की आवश्यकता की उपपत्ति पहले सांख्य निष्ठा के अनुसार बतलाई गई है। परन्तु जब यह देखा गया कि इस उप- पत्ति से काम नहीं चलता--यह अधूरी है है तब फिर सुरंत ही योग या कर्मयोग- मार्ग के अनुसार ज्ञान बतलाना प्रारम्भ किया है। और यह बतलाने के पश्चात, शि इस कलंयोग का अल्प प्राचरम्य भी कितना श्रेयस्कर है, दूसरे अध्याय में भगवान ने अपने उपदेश को इस स्थान तक पहुंचा दिया है कि जब कर्मयोग- मार्ग में कई की अपेक्षा वह बुद्धि ही टनानी जाती है जिससे कर्म करने की प्रेरणा हुश्रा करती है, तो अब स्थितप्रज्ञ की नाई तू अपनी बुद्धि को सम करके अपना कर्म कर, जिससे तकदापि पाप का भागी न होगा । अब देखना है कि आगे और कौन कौन से प्रश्न उपस्थित होते हैं। गीता के सारे उपपादन की जड़ दूसरे अध्याय में ही है। इसलिये इसके विषय का विवेचन यहां कुछ विस्तार से किया गया है। तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने प्रश्न किया है, कि "यदि कर्मयोगमार्ग में भी कम की अपेक्षा बुद्धि ही श्रेष्ठ मानी जाती है, तो मैं अभी स्थितप्रज्ञ की नाई अपनी बुद्धि को सम किये लेता है। फिर आप मुझसे इस युद्ध के समान घोर कम करने के लिये क्यों कहते हैं? इसका कारण यह है, कि कर्म की अपेक्षा बुद्धि को श्रेष्ठ कह देने से ही इस प्रश्न का निर्णय नहीं हो जाता कि-"युद्ध क्यों करें? बुद्धि को सम रख कर उदासीन क्यों न बैठे रहे? " बुद्धि को सम रखने पर मी मन-संन्यास किया जा सकता है। फिर जिस मनुब की बुद्धि लम हो गई है उसे संख्यमार्ग के अनुसार कमी का त्याग करने में क्या हल है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् इल प्रकार देते हैं, कि पहले नुझे नांख्य और योग नामक दो निष्ठा वतलाई है सही; पर यह भी स्मरण रहे कि किसी मनुष्य के कर्मों का