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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४९९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । होता है कि गीता में भक्ति का समावेश ज्ञान ही में किया गया है । दसवें अध्याव में भगवान् ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया है। परन्तु ग्यारहवें अध्याय के भारम्भ में अर्जुन ने उसे ही अध्यात्म' कहा है (११.१); और ऊपर यह बतना ही दिया गया है, कि परमेश्वर के व्यक्त स्वरूप का वर्णन करते समय बीच बीच में व्यक स्वरूप भी अपना भव्यक स्वरूप की श्रेष्ठता की भी वाने आ गई हैं। इन्हीं सब बातों से यारहवें पाय के प्रारम्भ में अर्जुन ने यह प्रश्न किया है, कि उगसना व्यक्त परमेश्वर की की जावं या अव्यक्त की? तब यह उत्तर देकर कि अव्यक की अपेक्षा व्यक्त की उपासना अर्थात् भक्ति सुगम है, भगवान ने तैरहवें अध्याय में क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का ज्ञान' यतनाना आत्म्म कर दिया और सातवें अध्याय के प्रारम्म के समान चौदहवें अध्याय के आरम्म में भी कहा है, कि "परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् "-फिर से मैं तुझे वही 'ज्ञान-विज्ञान' पूरी तरह से बतलाता हूँ (१४.) ! इस ज्ञान का वर्णन करते समर भक्तिभ सूत्र या सम्बंध भी ददने नहीं पाया है। इससे यह यात स्पष्ट मालूम हो जाती है, कि मगवान् का उदेश भक्ति और इन दोनों को पक् पृथक रीति स बतलाने कानहीं था; किन्तु सातवें अध्याय के प्रारम्भ में जिस ज्ञान-विज्ञान का प्रारम्भ किया गया है उसमें दोनों का गूंय दिय गये है। भक्ति मिन ई और ज्ञान भित्र है- यह कहना उस उस सम्दाय क अभिमानिगे की नापनमी है। वास्तव में गीता का अभिप्राय ऐसा नहीं है । अन्यतोगलना में (ज्ञान-पार्ग में) अध्यात्म-विचार से परमार के स्वरूप का जो ज्ञान प्राप्त कर लेना पाता है, वही भक्ति मार्ग में भी आवश्यक है। परन्तु व्योपासना में (भक्तिमार्ग में) प्रारम में, वह दान दूसरों से श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया जा सकता है (१३. २५), इसलिये मतिमार्ग प्रत्यक्षावगम्य और सामान्यत: समी लोगों के लिये सुखकारक है (६२), और ज्ञान-मार्ग (या अन्यक्तीपालना) समय (२.५) है-बस, इसके अतिरिक्त इन दो साधनों में गीता की दृष्टि से और कुछ भी भेद नहीं है। पामेबर-स्वल्प का ज्ञान प्रात कर के बुद्धि को सम करने का जो कर्मयोग का उद्देश या साध्य है, वह इन दोनों माधनों के द्वारा एफसा ही प्रात होता है । इसलिये चाहे न्यको- पालना कीजिये या अध्यक्तोपासना, भगवान को दोनों एकही समान ग्राह्य है तथापि ज्ञानी पुरुष को भी उपासना धी घोड़ी बहुत यावश्यकता होती ही है। इसलिय चतुर्विध भत्तों में भक्तिमान ज्ञानी को श्रेष्ठ कहकर (७.१७) भगवान् ने ज्ञान और भक्ति के विरोध को हटा दिया है । कुछ भी हो; परन्तु जब कि ज्ञान विज्ञान का वर्णन किया जा रहा है, तब प्रसंगानुसार एक-नाध अध्याय में ध्यो- पासना का और किसी दूसरे अध्याय में अन्योपासना का विशेष वर्णन हो जाना अपरिहार्य है । परन्तु इतने ही से यह सन्देह न हो जावं कि ये दोनों पृथक् पृथक है, इ-लिये परमेश्वर के व्यक्त स्वरूप का वर्णन करते समय उपक स्वरूप की अपेक्षा अन्यक्त की श्रेष्ठता, और अन्यक्त स्वरूप का वर्णन करते समय भक्ति की आवश्यकता