पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५०५

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४६६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । निर्णय करना शेप रह गया। इनमें से धर्म के विषय में तो यह सिद्धान्त समी पदों को मान्य है कि धर्म के द्वारा चित्त को शुद्ध किये बिना मोक्ष की बात ही करना न्यर्य है। परन्तु इस प्रकार चित्त को शुद्ध करने के लिये बहुत समय लगता है। इसलिये मोक्ष की दृष्टि से विचार करने पर भी यही सिद्ध होता है, कि तपूर्व कान में पहले पहल संसार के सब कत्तयों को 'धर्म से पूरा कर लेना चाहिये (मनु. ६. ३५-३७) । संन्यास का अर्थ है 'छोड़ना;' और जिसने धर्म के द्वारा इस संसार में कुछ प्रात या सिद्ध ही नहीं किया है, वह त्याग ही क्या करेगा? अथवा जो 'प्रपत्र (सांसारिक कर्म) ही ठीक ठीक साध नहीं सकता, रस 'अभागी' से परमापं भी कैसे ठीक सधंगा (दास. १२. १. १-० और १२.८ २१-३१)? किसी का अन्तिम उद्देश या साध्य चाहे सांसारिक हो अथवा पार- मार्थिक परन्तु यह बात प्रगट है कि उसकी सिद्धि के लिये दीव प्रयत्न, मनोनित्रह और सामर्दी इत्यादि गुणों की एक हीसी आवश्यकता होती है भार जिसमें ये गुण विद्यमान नहीं होते, उसे किसी भी उद्देश या साध्य की प्राक्षि नहीं होती । इस बात को मान लेने पर भी कुछ लोग इससे आगे बढ़ कर कहते हैं, कि जब दो प्रयत्न और मनोनिग्रह के द्वारा आत्म-ज्ञान हो जाता है, तव अन्त में संसार के विषयोपभोग-रूपी सब व्यवहार निस्सार प्रतीत होने लगते हैं और जिस प्रकार सॉप अपनी निरुपयोगी केंचुली को छोड़ देता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष मी सब सांसारिक विषयों को छोड़ केवल परमेघर स्वरूप में ही लीन हो जाया करते हैं (१.१.१.७)।जीवन-क्रमण करने के इस मार्ग में चूंकि सब व्यवहारों का त्याग कर मन्त में केवल ज्ञान को ही प्रधानता दी जाती है, अतएव इसे ज्ञाननिया, सांख्य- निष्टा अथवा सब व्यवहारों का त्याग करने से संन्यास-निष्ठा भी कहते हैं । पन्तु इसके विपरीत गीताशास्त्र में कहा है, कि प्रारम्भ में चित्त की शुद्धता के लिये 'धर्म' की आवश्यकता तो है ही, परन्तु आगे विच की शुद्धि होने पर भी स्वयं अपने लिये विपयोपभोग-रूपी व्यवहार चाहे तुच्छ हो जावे, तो भी उन्हीं व्यवहारों को केवल स्वधर्म और कर्त्तव्य समझ कर, लोक-संग्रह के लिये निकाम बुद्धि से करते रहना आवश्यक है। यदि ज्ञानी मनुष्य ऐसा न करेंगे तो लोगों को श्रादर्श बतलानेवाला कोई भी न रहेगा, और फिर इस संसार का नाश हो जायगा। इस कर्म-भूमि में किसी से भी कर्म हट नहीं सकता और यदि बुद्धि निष्कान हो जावे तो कोई भी कर्म मोज्ञ के आड़े नहीं पा सकते। इसलिये संसार के कर्मों का त्याग न कर सब व्यवहारों को विरक बुद्धि से अन्य जनों की नाई मृत्यु पर्यन्त करते रहना ही ज्ञानी पुरुष का भी कर्तव्य हो जाता है ।गीता-प्रतिरादित, जीवन व्यतीत करने के, इस मार्ग को ही कर्मनिष्ठा या कर्मयोग कहते हैं। परन्तु यद्यपि कर्मयोग इस प्रकार श्रेष्ठ निश्चित किया गया है, तथापि उसके लिये गीता ने संन्यासमार्ग की कहीं भी निन्दा नहीं की गई है। उलटा, यह कहा गया है, कि वह भी मोक्ष का देनेवाला है। स्पष्ट ही है कि सृष्टि के मालम में सनत्कुमार प्रति ने, और आगे चल कर शुकन्याज्ञवलय प्रादि ऋषियों ने, जिस मार्ग को स्वीकार