४७३ उपसंहार। योग की तुलगा का ही विषय याकी रह जाता है, जिसके बारे में कुछ लागा की समझ है, कि इसकी उपपत्ति हमारे प्राचीन शास्त्रकारों ने नहीं यतलाई है। परंतु एक इसी विषय का विचार भी इतना विस्तृत है, कि उसका पूर्णतया प्रतिपादन करने के लिये एक स्वतंत्र अन्य ही लिखना पड़ेगा। तथापि, इस विषय पर इस अन्य में थोड़ा भी विचार न करना उचित न होगा, इसलिये केवल दिग्दर्शन कराने के लिये इसकी कुछ महत्वपूर्ण बातों का विवेचन इस उपसंहार में अव किया जावगा । थोड़ा भी विचार करने पर यह सहज ही ध्यान में आ सकता है, कि सदाचार और दुराचार, तथा धर्म और अधर्म, शब्दों का उपयोग यथार्थ में ज्ञान. वान् मनुष्य के कर्म के ही लिये होता है और यही कारण है कि नीतिमत्ता केवल जड़ कमों में नहीं, किंतु युद्धि में रहती है।“ धर्मो हि तेपामधिको विशेप:"- धर्म-अधर्म का ज्ञान मनुष्य का अर्थात् बुद्धिमान् प्राणियों का ही विशिष्ट गुण है- इस वचन का तात्पर्य और भावार्थ भी वही है। किसी गधे या प्रैल के कर्मों को देख कर हम उसे उपद्रवी तो बेशक कहा करते हैं, परन्तु जब वह धका देता है तब उस पर कोई नालिश करने नहीं जाता। इसी तरह किसी नदी को, उसके परिणाम की और ध्यान देकर, हम भयंकर अवश्य कहते हैं, परन्तु जब उसमें बाढ़ आ जाने से फसल यह जाती है तो “ अधिकांश लोगों की अधिक हानि होने के कारण कोई उसे दुराचारिणी, लुटेरी या अनीतिमान नहीं कहता। इस पर कोई प्रश्न कर सकते हैं, कि यदि धर्म-अधर्म के नियम मनुष्य के व्यवहारों ही के लिये उपयुक्त हुआ करते हैं, तो मनुष्य के कर्मों के भले-बुरे-पन का विचार भी केवल उसके कर्म से ही करने में क्या हानि है ? इस प्रश्न का उत्तर देना कुछ कठिन नहीं । अचेतन वस्तुओं और पशु-पक्षी आदि मढ़ योनि के प्राणियों का एटांत छोड़ दें और यदि मनुष्य के ही कृत्यों का विचार करें, तो भी देख पड़ेगा कि जब कोई आदमी अपने पागलपन से प्रथया अनजाने में कोई अपराध कर ढालता है, तथ वह संसार में और कानून द्वारा सम्य माना जाता है। इससे यही बात सिद्ध होती है, कि मनुष्य के भी कमै यसर्म की भलाई-चुराई ठहराने के लिये, सब से पहले उसकी बुद्धि का ही विचार करना पड़ता है- अर्थात् यह विचार करना पड़ता है, कि उसने उस कर्म को किस उद्देश, भाव या हेतु से किया और उसको उस कर्म के परिणाम का ज्ञान था या नहीं। किसी धनवान् मनुष्य के लिये, यह कोई कठिन काम नहीं कि वह अपनी इच्छा के अनुसार मनमाना दान दे दे। यह दान- विपयक काम अच्छा भले ही हो; परन्तु उसकी सची नैतिक योग्यता उस दान की स्वाभाविक क्रिया से ही नहीं ठहराई जा सकती। इसके लिये, यह भी भी छापा गया है । नत्र प्रो. टायसन सन १८९३ में हिन्दुस्थान में आये थे, तब उन्होंने बंबई की रायल एशियाटिक सोसायटी में यह व्याख्यान दिया था। इसके अतिरिक्ता The Religion and Philosophy of the Upranishads are GTTAR ATT FT ग्रन्थ भी इस विषय पर पढ़ने योग्य है। गी.र.६०
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