पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५२

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विषयप्रवेश १५ करने लगे। मायावाद, अद्वैत और संन्यास का प्रतिपादन करनेवाले शांकर संप्रदाय के लगभग ढाई सौ वर्ष बाद, श्रीरामानुजाचार्य (जन्म संवत् १०७३) ने विशिष्टाद्वैत संप्रदाय चलाया। अपने संप्रदाय को पुष्ट करने के लिये इन्होंने भी, शंकराचार्य ही के समान, प्रस्थानत्रयी पर (और गीता पर भी) स्वतंत्र भाष्य लिखे हैं। इस संप्र- दाय का मत यह है कि शंकराचार्य का माया-मिथ्यात्वावाद और अद्वैत सिद्धान्त- दोनों झूठ हैं। जीव, जगत और ईश्वर-ये तीन तस्य यद्यपि भिन्न हैं, तथापि जीव (चित्) और जगत् (अचित्) ये दोनों एक ही ईश्वर के शरीर हैं, इसलिये चिचिद्विशिष्ट ईश्वर एक ही है; और ईश्वर-शरीर के इस सूक्ष्म चित्र-चित् से ही फिर स्यूल चित् और स्यूल अचित अर्थात् अनेक जीव और जगत् की उत्पत्ति हुई है। तस्त्रज्ञान-दृष्टि से रामानुजाचार्य का कथन है (गी. रामा. २.१२, १३.२) कि यही मत (जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है) उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और गीता में भी प्रतिपादित हुआ है। अव यदि कहा जाय कि इन्हों के ग्रंथों के कारण भागवत- धर्म में विशिष्टाद्वैत मत सम्मिलित हो गया है तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि इनके पहले महाभारत और गीता में भागवतधर्म का जो वर्णन पाया जाता है उनमें केवल अद्वैत मत ही का स्वीकार किया गया है। रामानुजाचार्य भागवतधर्मी धे इसलिये यथार्थ में उनका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिये था कि गीता में प्रवृत्ति-विपयक कर्मयोग का प्रतिपादन किया गया है। परन्तु उनके समय में मूल भागवतधर्म का कर्मयोग प्रायः लुप्त हो गया था और उसको, तत्वज्ञान की दृष्टि से विशिष्टाद्वैत-स्वरूप तथा आचरण की दृष्टि से मुख्यतः भाक्ति का स्वरूप प्राप्त हो चुका था। इन्ही कारणों से रामानुजाचार्य ने (गी. रामा. १८.१ और ३.१) यह निर्णय किया है, कि गीता में यद्यपि ज्ञान, कर्म और भक्ति का वर्णन है तथापि तत्व- ज्ञान-दृष्टि से विशिष्टाद्वैत और आचार-दृष्टि से धासुंदेवभक्ति ही गीता का सारांश है और कर्मनिष्ठा कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं-वह केवल ज्ञाननिष्ठा की उत्पादक है। शांकर संप्रदाय के अद्वैत-ज्ञान के बदले विशिष्टाद्वैत और संन्यास के बदले भक्ति को स्थापित करके रामानुजाचार्य ने भेद तो किया, परन्तु उन्होंने प्राचार-दृष्टि से भरिक ही को अतिम कर्तव्य माना है। इससे वर्णाश्रम-विहित सांसारिक कर्मों का मरण पर्यन्त किया जाना गौण हो जाता है और यह कहा जा सकता है कि गीता का रामानुजीय तात्पर्य मी एक प्रकार से कर्मसंन्यास-विषयक ही है। कारण यह है कि कर्माचरण से चित्तशुद्धि होने के बाद ज्ञान की प्राप्ति होने पर चतुर्थाश्रम का स्वीकार करके ब्रह्मचिन्तन में निमग्न रहना, या प्रेमपूर्वक निस्सीम वासुदेव-भक्ति में तत्पर रहना, कर्मयोग की दृष्टि से एक ही बात ई-ये दोनों मार्ग निवृत्ति-विपयक हैं। यही आक्षेप, रामानुज के बाद प्रचलित हुए संप्रदायों पर भी हो सकता है। माया को मिथ्या कहनेवाले संप्रदाय को झूठ कर वासुदेव भक्ति को ही सच्चा मोव-साधन बतलानेवाले रामानुज-संप्रदाय के बाद एक तीसरा संप्रदाय निकला । उसका मत है कि परमझ और जीव को कुछ अंशों में एक, और कुछ अंशों में भिन्न मानना परस्पर