४८२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । की दृष्टि से देखें, तो भी कमों के केवल बाह्य परिणामों पर विचार करनेवाला मार्ग कृपण तयाँ अपूर्ण प्रतीत होता है । अतः इमारे निश्चय के अनुसार गीता का यही सिद्धान्त, पश्चिमी आधिदैविक और आधिभौतिक पनों के मतों की अपेक्षा, अधिक मार्मिक, व्यापक, युक्ति-संगत और निर्दोष है, कि वाह्य कौ से व्यक्त होने- वाली और संकट के समय में भी दृढ़ रहनेवाली साम्यबुद्धि का ही सहारा इस काम में, अर्थात् कर्मयोग में, लेना चाहिये, तथा ज्ञान-युक्त निस्सीम शुद्ध बुद्धि या शील ही सदाचरण की सच्ची कसौटी है। नीतिशास्त्र संबंधी आधिभौतिक और आधिदैविक ग्रन्थों को छोड़फर नीति का विचार आध्यात्मिक दृष्टि से करनेवाले पश्चिमी पंडितों के अन्यों को यदि देखें, तो मालूम होगा कि उनमें भी नीतिमत्ता का निर्णय करने के विषय में गीता के ही सदश कर्म की अपेक्षा शुद्धबुद्धि को ही विशेष प्रधानता दी गई है। उदाहरणार्थ, प्रसिद्ध जर्मन तत्ववेत्ता कान्ट के “ नीति के आध्यात्मिक मूलतत्त्व " तथा नीति- शास्त्रसंबंधी दूसरे अन्यों को लीजिये । यद्यपि कान्टने सर्वभूतात्मैक्य का सिद्धान्त अपने ग्रन्थों में नहीं दिया है, तथापि व्यवसायात्मक और वासनात्मक बुद्धि का ही सूक्षम विचार करके उसने यह निश्चित किया है-कि (१) किसी कर्म की नैतिक योग्यता इस वाह्य फल पर से नहीं ठहराई जानी चाहिये, कि उस कर्म द्वारा कितने मनुष्यों को सुख होगा; बल्कि उसकी योग्यता का निर्णय यही देख कर करना चाहिये, कि कर्म करनेवाले मनुष्य की वासना' कहाँ तक शुद्ध है। (२) मनुष्य की इस वासना (अर्थात् वासनात्मक बुद्धि) को तभी शुद्ध, पवित्र और स्वतंत्र समझना चाहिये, जब कि वह इंद्रियसुखों में लिप्त न रह कर सदैव शुद्ध (अवसायात्मक) बुद्धि की आज्ञा के (अर्थात् इस बुद्धिद्वारा निश्चित कर्तव्य-अकर्तव्य के नियमों के) अनुसार चलने लगे; (३) इस प्रकार इंद्रिय निग्रह हो जाने पर जिसकी वासना शुद्ध हो गई हो, उस पुरुष के लिये किसी नीतिनियमादि के बंधन की आवश्यकता नहीं रह जाती-ये नियम तो सामान्य मनुष्यों के ही लिये हैं। (४) इस प्रकार से वासना के शुद्ध हो जाने पर जो कुछ कर्म करने को वह शुद्ध वासना या बुद्धि कहा करती है, वह इसी विचार से कहा जाता है कि "हमारे समान यदि दूसरे भी करने लगें तो परिणाम क्या होगा;" और (५) वासना की इस स्वतंत्रता और शुद्धता की उपपत्ति का पता कर्म-वृष्टि को छोड़ कर ब्रह्मसृष्टि में प्रवेश किये विना नहीं चल सकता । परन्तु आत्मा और ब्रह्मसृष्टि संबंधी कान्ट के विचार कुछ अपूर्ण हैं और, ग्रीन यद्यपि कान्ट का ही अनुयायी है, तथापि उसने अपने " नीतिशास्त्र के उपोद्घात " में पहले यह सिद्ध Kant's Theory of Ethics, trans by Abbott, 6th Ed. पुस्तक में ये सब सिद्धान्त दिये गये हैं। पहला सिद्धान्त १०, १२, १६ और २४ ३ पृष्ठ में; दूसरा ११२ और ११७ वें पृष्ठ में तीसरा ३३, ५८,१२१ और २९० वें पृष्ठ में; चौथाइ८, ३८, ५५ और ११९ वें पृष्ठ में और पांचवाँ ७०-७३ क्या ८० पृष्ठ में पाठकों को मिलेगा।
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