पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५२३

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४८४ गीतारहत्य भयवा फर्मयागशास्त्र। मूलकारण वासना ही है इसलिये इसका क्षय किये बिना दुःख की निवृत्ति होना असंभव है। अतएव वासना का ज्ञय करना ही प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।" शौर, इसी आध्यात्मिक सिद्धान्तद्वारा नीति की उपपचि का विवेचन उसने अपने उक्त ग्रन्थ के तीसरे भाग में सष्ट रीति से किया है। उसने पहले यह सिद्ध कर दिखलाया है कि वासना का क्षय होने के लिये या हो जाने पर भी कर्मों को छोड़ देने की प्रावश्यकता नहीं है, बल्कि ' वासना का पूरा तय हुआ है कि नहीं यह बात परोपकारार्य किये गये निष्काम-कर्म से जैसे प्रगट होती है, वैसे अन्य किसी भी प्रकार से व्यक्त नहीं होती, अतएव निष्काम-कर्म वासनाक्षय का ही लक्षण और फल है। इसके बाद उसने यह प्रतिपादन किया है, कि वासना की निष्कामता ही सदाचार और नीतिमत्ता का भी मूल है। और, इसके अन्त में गीता का" तस्माइसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर" (गी.३.१,९) यह श्लोक दिया है । इसने मान्म होता है, कि टायसन को इस उपपत्ति का ज्ञान गीता से ही हुआ होगा। जो हो; यह बात कुल्ल कम गौरव की नहीं, कि ढायसन, प्रीन, शोपेनहर और कान्ट के पूर्व-अधिक क्या कहें, अरिस्टाटल के भी सैकड़ों वर्ष पूर्व ही ये विचार हमारे देश में प्रचलित हो चुके थे। आज कल बहुतेरे लोगों की यह समझ हो रही है, कि वेदान्त केवल एक ऐसा कोरा यखेड़ा ई जो हमें इस संसार को छोड़ देने और मोन की प्राप्ति करने का उपदेश देता है। परन्तु यह समझ ठीक नहीं । संसार में जो कुछ आँखों से दीख रहा है उसके भागे विचार करने पर ये प्रश्न उठा करते हैं, कि " मैं कौन हूँ ? इस सृष्टि की जड़ में कौनसा तत्व है? इस तत्व से मेरा क्या सम्बन्ध है ? इस सम्बन्ध पर ध्यान दे कर इस संसार में मेरा परमसाध्य या अन्तिम ध्येय क्या है ? इस साध्य या ध्येय को प्राप्त करने के लिये मुझे जीवनयात्रा के किस मार्ग को स्वीकार करना चाहिये अथवा किस मार्ग से कौन सा ध्येय सिद्ध होगा?" और, इन गहन प्रश्नों का यथाशक्ति शास्त्रीय रीति से विचार करने के लिये ही वेदान्तशाग्न प्रवृत्त हुना है, बल्कि निप्पन दृष्टि से देखा जाय तो यह मालूम होगा कि समस्त नीतिशास्त्र अर्थात् मनुष्यों के पारस्प- रिक व्यवहार का विचार, टल गहन शास्त्र का ही एक अंग है। सारांश यह है कि कर्मयोग की उपपत्ति वेदान्तशास्त्र ही के आधार पर की जा सकती है और अव संन्यासमार्गीय लोग चाहे कुछ भी कहें, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि गणितशास्त्र के जैस-शुद्ध गणित और व्यावहारिक गागीत-दो भेद हैं, उसी प्रकार वेदान्तशास्त्र के भी दो भाग–अर्थात् शुद्ध वेदान्त और नैतिक अथवा व्यावहारिक वेदान्त-होते हैं। कान्ट तो यहाँ तक कहता है, कि मनुष्य के मन में 'पर- मेश्वर (परमात्मा) अमृतव' और ' (इच्छा-स्वातंत्र्य के संबंध के गूढ़ विचार इस नीतिप्रश्न का विचार करते करते ही उत्पन्न हुए हैं, कि " मैं संसार में किस

  • See Deussen's Elements of Jetraplıysics Eng. traus. 1909.

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