उपसंहार। ४८७ ईसाई धर्मपुस्तकों में पिंड-ग्रहांड की रचना के विषय में कहे गये सिद्धान्त ठीक नहीं हैं तय यह विचार छोड़ दिया गया कि परमेश्वर के समान कोई सृष्टि का कर्ता है या नहीं; और यही विचार किया जाने लगा कि नीतिशास्त्र की इमारत प्रत्यक्ष दिखनेवाली बातों की नींव पर क्योंकर खड़ी की जा सकती है। तव से फिर यह माना जाने लगा, कि अधिकांश लोगों का अधिक सुख या कल्याण, अथवा मनु- प्यत्व की वृद्धि, यही दृश्य तत्व नीतिशास्त्र के मूल कारण हैं। इस प्रतिपादन में इस बात की किसी उपपत्ति या कारण का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, कि कोई मनुष्य अधिकांश लोगों का अधिक हित क्यों करे ? सिर्फ इतना ही कह दिया जाता है, कि यह मनुष्य की नित्य पढ़नेवाली एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है । परन्तु मनुष्य-स्वभाव में स्वार्थ सरीखी और भी दूसरी पृत्तियों देख पड़ती है इसलिये इस पंथ में भी फिर भेद होने लगे । नीतिमत्ता की ये सय उपपत्तियाँ कुछ सर्वथा निर्दोष नहीं हैं। क्योंकि उक्त पंधों के सभी पंडितों में " सृष्टि के एश्य पदार्थों ले परे सृष्टि की जड़ में कुछ न कुछ अव्यक्त तत्व अवश्य है," इस सिद्धान्त पर एक ही सा अविश्वास और अश्रद्धा है, इस कारण उनके विषय प्रतिपादन में चाहे कुछ भी अड़चन क्यों न हो, वे लोग केवल याय और दृश्य तत्वों से ही किसी तरह निर्वाह कर लेने का हमेशा प्रयत्न किया करते हैं। नीति तो सभी को चाहिये, क्योंकि वह सब के लिये आवश्यक है। परन्तु उक्त कथन से यह मालूम हो जायगा, कि पिंड- ब्रह्मांड की रचना के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मत होने के कारण उन लोगों की नीतिशास्त्र-विषयक उपपत्तियों में हमेशा कैसे भेद हो जाया करते हैं। इसी कारण से पिंडब्रह्मांड की रचना के विषय में श्राधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक मतों के अनुसार हमने नीतिशास्त्र के प्रतिपादन के (तीसरे प्रकरण में) तीन भेद किये हैं और आगे फिर प्रत्येक पंथ के मुख्य मुख्य सिद्धान्तों का भिन्न भिन्न विचार किया है। जिनका यह मत है कि सगुण परमेश्वर ने सर्व श्य सृष्टि को बनाया है, वे नीतिशास्त्र का केवल यहीं तक विचार करते हैं, कि अपने धर्मग्रन्थों में परमेश्वर की जो प्राज्ञा है वह, तथा परमेश्वर की ही सत्ता से निर्मित सदसद्विवेचन-शक्तिरूप देवता ही सब कुछ है इसके बाद और कुछ नहीं है। इसको हमने 'प्राधिदैविक पन्य कहा है क्योंकि सगुण परमेश्वर भी तो एक देवता ही है न । प्रय, जिनका यह मत है, कि दृश्य सृष्टि का आदि-कारण कोई भी प्रदृश्य मूज-तत्व नहीं है, और यदि हो भी तो वह मनुष्य की बुद्धि के लिये अगम्य वे लोग अधिकांश लोगों का अधिक कल्याण' या 'मनुष्यत्व का परम उत्कर्ष 'जैसे केवल एश्य तव द्वारा ही नीतिशास्त्र का प्रतिपादन किया करते हैं और यह मानते हैं कि इस बाय और दृश्य तत्व के परे विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस पन्ध को हमने आधिभौतिक' नाम दिया है। जिनका यह सिद्धान्त है, कि नामरूपात्मक दृश्य सृष्टि की जड़ में आत्मा सरीखा कुछ न कुछ नित्य और अव्यक्त तत्व अवश्य है, वे लोग अपने नीतिशास्त्र की
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