उपसंहार । ४८६ तथा हमारा भी किसी दिन अवश्य नाश हो जायगा, तो नाशवान् भपिप्य पाड़ियों के लिये हम अपने सुख का नाश क्यों फरें? "-प्रयवा. जिन लोगों का केवल इस उत्तर से पूरा समाधान नहीं होता, कि " परोपकार प्रादि मनोवृत्तियों इस कर्म- मय, अनित्य और दृश्य सृष्टि की नैसर्गिक प्रवृत्ति ही है", और जो यह जानना चाहते हैं कि इस नैसर्गिक प्रवृत्ति का मूलकारण क्या है उनके लिये अध्यात्म- शास्त्र के नित्य-तत्वज्ञान का सहारा लेने के सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है । और, इसी कारण से ग्रीन ने अपने नीतिशाख के ग्रन्थ का प्रारम्भ इसी तत्त्व के प्रतिपादन से किया है, कि जिस आत्मा को जड़सृष्टि का ज्ञान होता है वह प्रात्मा जड़सृष्टि से अवश्य ही भिन्न होगा; और, कान्ट ने पहले व्यय- सायात्मक बुद्धि का विवेचन करके फिर वासनात्मक बुद्धि की तथा नीतिशाच की मीमांसा की है। मनुष्य अपने सुख के लिये या अधिकांश लोगों को सुख देने के लिये पैदा हुआ है। यह कथन ऊपर ऊपर से चाहे कितना ही मोहक तथा उत्तम दिखे, परन्तु वस्तुतः यह सच नहीं है। यदि हम क्षणभर इस बात का विचार करें, कि जो महात्मा केवल सत्य के लिये प्राण-दान करने को तैयार रहते हैं, उनके मन में क्या यही हेतु रहता है, कि भविष्य पीढ़ी के लोगों को अधिकाधिक विषयसुख होव; तो यही कहना पड़ता है, कि अपने तथा अन्य लोगों के भनित्य प्राधिभी- तिक सुखों की अपेक्षा इस संसार में मनुष्य का और भी कुछ दूसरा अधिक महत्व का परमसाध्य या उद्देश अवश्य है । यह उद्देश क्या है? जिन्हों ने पिंडवलांड के नामरूपात्मक, (अतएव) नाशवान (परन्तु) दृश्य स्वरूप से आच्छादित आत्म- स्वरूपी नित्य तत्व को अपनी प्रात्मप्रतीति के द्वारा जान लिया है। वे लोग उक्त प्रभ का यह उत्तर देते हैं. कि अपने आत्मा के अमर, श्रेष्ठ, शुन्छ, निस्य तथा सर्वव्यापी स्वरूप की पहचान करके उसी में रम रहना ज्ञानवान् मनुष्य का इस नाशवान् संसार में पहला कर्तव्य है। जिसे सर्वभूतान्तर्गत प्रात्मैक्य की इस तरह से पहचान हो जाती है तथा यह ज्ञान जिसकी देह तथा इंद्रियों में समा जाता है, वह पुरुष इस यात के सोच में पड़ा नहीं रहता कि यह संसार झूठ है या सच किंतु वह सर्वभूतहित के लिये उद्योग करने में पाप ही आप प्रवृत्त हो जाता है। और सत्य मार्ग का अग्रेसर बन जाता है। क्योंकि उसे यह पूरी तौर से मालूम रहता है कि अविनाशी तथा निकाल-अयाधित सत्य कौनसा है । मनुष्य की यही आध्यात्मिक पूर्णावस्था सब नीति-नियमों का मूल उद्गम स्थान है और इसे ही वेदान्त में मोन' कहते हैं। किसी भी नीति को लीजिये, वह इस अंतिम साध्य से अलग नहीं हो सकती; इसनिये नीतिशास्त्र का या कर्मयोगशास्त्र का विवेचन करते समय आखिर इसी तत्व की शरण में जाना पड़ता है। सर्वात्मैक्यरूप अव्यक्त मूल तत्व का ही एक व्यक्त स्वरूप सर्वभूतहितेच्छा है और, सगुण परमेश्वर तथा दृश्य सृष्टि दोनों उस आत्मा के ही व्यक्तस्वरूप हैं जो सर्वभूतान्तर्गत, सर्व- व्यापी और अव्यक्त है। इस व्यक्त स्वरूप के भागे गये बिना अर्थात् अन्यक आस्मा गी, र. ६२
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