उपसंहार। गुणों के लक्षण निश्चित किये हैं, और फिर प्रतिपादन किया है कि इनमें से सात्विक सद्गुणों का परम उत्कर्ष करना ही मनुष्य का कर्तव्य है तथा मनुष्य को इसी से अंत में त्रिगुणातीत अवस्था मिल कर मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवद्गीता के सत्रहवें तथा अठारहवें अध्याय में थोड़े भेद के साथ इसी अर्थ का वर्णन है। सच देखा जाय तो, क्या साविक सद्गुणों का परम उत्कर्ष, और (आधिभौतिक वाद के अनुसार) क्या परोपकार घुद्धि की तथा मनुष्यत्व की वृद्धि, दोनों का अर्थ एक ही है। महाभारत और गीता में इन सब आधिभौतिक तत्वों का स्पष्ट उल्लेख तो है ही पल्कि महाभारत में यह भी साफ साफ कहा गया है, कि धर्म-अधर्म के नियमों के लौकिक या याय उपयोग का विचार करने पर यही जान पड़ता है कि ये नीतिधर्म सर्वभूतहितार्थ अर्थात् लोककल्याणार्थ ही हैं। परन्तु पश्चिमी आधिभौ- तिक पवितों का किसी अन्यक्त तत्व पर विश्वास नहीं है। इसलिये यद्यपि वै जानते हैं कि तात्विक दृष्टि से कार्य-अकार्य का निर्णय करने के लिये प्राधिभौतिक तत्व पूरा काम नहीं देते, तो भी वे निरर्थक शब्दों का प्राडम्यर यढ़ाकर व्यक्त तत्व से ही अपना निर्वाह किसी तरह कर लिया करते हैं। गीता में ऐसा नहीं किया गया है किन्तु इन तत्वों की परंपरा को पिंडग्रह्मांड के मूल अव्यक्त तथा नित्य तत्व तक ले जाकर मोक्ष, नीतिधर्म और व्यवहार (इन तीनों) की भी पूरी एकवाक्यता तत्वज्ञान के आधार से गीता में भगवान ने सिद्ध कर दिखाई है और, इसीलिये अनुगीता के प्रारंभ में स्पष्ट कहा गया है कि कार्य-अकार्य-निर्णयार्थ जो धर्म बतलाया गया है वही मोक्ष- प्राप्ति करा देने के लिये भी समर्थ है (मभा. अश्व. १६. १२)। जिनका यह मत होगा, कि मोक्षधर्म और नीतिशास्त्र को अथवा अध्यात्मज्ञान और नीति को एक में मिला देने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें वक्त उपपादन का महत्व ही मालूम नहीं हो सकता । परन्तु जो लोग इसके संबंध में उदासीन नहीं है, उन्हें निस्संदेह यह मालूम हो जायगा, कि गीता में किया गया कर्मयोग का प्रतिपादन आधिभौ- तिक विवेचन की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ तथा ग्राम है। अध्यात्मज्ञान की वृद्धि प्राचीनं काल में हिन्दुस्थान में जैसी हो चुकी है, वैसी और कहाँ भी नहीं हुई; इसलिये पहले पहल किसी अन्य देश में, कर्मयोग के ऐसे आध्यात्मिक उपपादन का पाया जाना बिलकुल सम्भव नहीं-और, यह विदित ही है कि ऐसा उपपादन कहीं पाया भी नहीं जाता। यह स्वीकार होने पर भी कि इस संसार के अशाश्वत होने के कारण इस में सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक है (गी. ६. ३३), गीता में जो यह सिद्धान्त स्थापित किया गया है कि "कर्म ज्यायो खकर्मणः"-अर्थात, सांसारिक कर्मों का कभी न पाबू किशोरीलाल कार एम्. ए. पी. एल. ने The Hindu System. of Moral Science नामक जो एक छोटासा ग्रंथ लिखा है वह इसी टैंग का है, मर्थात् उसमें सत्व, रज और तम तीनों गुणों के आधार पर विवेचन किया गया है। $
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