उपसंहार । या दुःख, परन्तु मनुष्य का यही कर्तव्य है कि वह इस बात में अपना महदाग्य समझे कि उसे नरदेह मात हुई है और कर्म-सृष्टि के इस अपरिहार्य व्यवहार में जो कुछ प्रसंगानुसार प्राप्त हो उसे, अपने अंतःकरण को निराश न करके, इस न्याय अर्थात् साम्ययुद्धि से सहता रहे कि " दुःखेप्यनुदिन्नमनाः सुखेषु विगतरहः (गी. २. ५६ ) एवं अपने अधिकारानुसार जो कुछ कर्म शाग्नतः अपने हिस्से में आ पड़े उसे जीवन पर्यन्त (किसी दूसरे के लिये नहीं, किन्तु संसार के धारण-गोपण के लिये) निकाम-युद्धि से करता रहे । गीता-काल में चातुर्वण्र्यव्यवस्था जारी घी इसीलिये बतलाया गया है, कि ये सामाजिक कर्म चातुर्वर्य के विभाग के अनुसार हरएक के हिस्से में आ पड़ते हैं, और अठारहवें अध्याय में यह भी यतलाया गया है कि ये भेद गुणकर्म-विभाग से निपन होते हैं (गी. १८.४१- ४४) । परन्तु इससे किसी को यह न समझ लेना चाहिये, कि गीता के नीति- तत्व चातुर्वर्ण्यरूपी समाज-व्यवस्था पर हो अवलंबित हैं। यह बात महाभारत- कार के भी ध्यान में पूर्णतया पा चुकी थी, कि हिंसादि नीति-धर्मों की व्याति केवल चातुर्वरार्य के लिये ही नहीं है, बल्कि ये धर्म मनुप्यमान के लिये एक समान है। इसीलिये महाभारत में स्पष्ट रीति से कहा गया है, कि चातुर्वर्य के थाहर जिन अनार्य लोगों में ये धर्म प्रचलित हैं, उन लोगों की भी रक्षा राजा को इन सामान्य धर्मों के अनुसार ही करनी चाहिये (शां. ६५. १२-२२) । अर्थात् गीता में कही गई नीति की उपपत्ति चातुर्वर्ण्य सरीखी किसी एक विशिष्ट समाज. व्यवस्था पर अवलम्मित नहीं है, किन्तु सर्वसामान्य माध्यात्मिक ज्ञान के आधार पर ही उसका प्रतिपादन किया गया है। गीता के नीति-धर्म का मुख्य तात्पर्य यही है कि जो कुछ कर्त्तव्य-फर्म शासतः प्राप्त हो, उसे निष्काम और पात्मौपम्य थुद्धि से करना चाहिये और, सय देशों के लोगों के लिये यह एक ही समान उपयोगी है। परन्तु, यद्यपि आत्मपिम्य एटि का और निष्काम कर्माचरण का यह सामान्य नीति-तस्य सिद्ध हो गया, तथापि इस बात का भी सर विचार कर लेना प्रावश्यक कि यह नीति-तत्व जिन कमी को उपयोगी होता है वे कर्म इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति को कैसे प्राप्त होते हैं। इसे बतलाने के लिये ही, उस समय में उपयुक्त होनेवाले सहज बदाहरण के नाते से, गीता में चातुर्वर्ण्य का उल्लेख किया गया है। और, साथ साथ गुणकर्म-विभाग के अनुसार समाजव्यवस्था की संक्षेप में उपपत्ति भी बतलाई है। परन्तु इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये कि यह चातुर्वण्र्य-व्यवस्था ही कुछ गीता का मुख्य भाग नहीं है । गीताशास्त्र का व्यापक सिवान्त यही है, कि यदि कहीं चातुर्यव्यवस्था प्रचलित न हो अथवा वह किसी गिरी दशा में हो, तो वहाँ भी तत्कालीन प्रचलित समाजव्यवस्था के अनुसार समाज के धारण-पोपण के जो जो काम अपने हिस्से में आ पड़ें, उन्हें लोकसंग्रह के लिये धैर्य और उत्साह से तथा निकांमयुद्धि से कर्तग्य समझ- कर करते रहना चाहिये, क्योंकि मनुष्य का जन्म इसी काम के लिये हुआ है, न चा,
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