" करना ५५२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग- परिशिष्ट। पद में उसका प्रारम्भ 'धनिष्ठा से किया गया है। इस विषय में मतभेद है, कि मैन्युपनिषद के अविष्ठाधैं ' शब्द में जो अध' पद है उसका अर्थ ठीक आधा' करना चाहिये, अथवा "धनिष्ठा और शततारका के बीच किसी स्थान पर चाहिये । परन्तु चाहे जो कहा जाय, इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं, कि वेदांग- ज्योतिष के पहले की उदगयन स्थिति का वर्णन मैन्युपनिषद में किया गया है,और वही उस समय की स्थिति होनी चाहिये । अतएच यह कहना चाहिये, कि वेदांगज्यो- तिप-काल का उदगयन, मैत्र्युपनिषदकालीन उदगयन की अपेक्षा लगभग आधे नक्षत्र से पीछे हट अाया था। ज्योतिर्गणित से यह सिद्ध होता है, कि वेदांग- ज्योतिष में कही गई उदगयन स्थिति ईसाई सन् के लगभग १२०० या १४०० वर्ष पहले की है और आधे नक्षत्र से उदगयन के पछि हटने में लगमग ४८० वर्ष लग जाते हैं। इसलिये गणित से यह बात निष्पन्न होती है, कि मैन्युपनिपद ईसा के पहले १८८० से १६८० वर्ष के बीच कभी न कभी बना होगा। और कुछ नहीं तो, यह उपनिषद निस्सन्देह वेदांगज्योतिष के पहले का है। अब यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, कि छांदोग्यादि जिन उपनिपदों के अवतरण मैन्युपनिपद में दिये गये हैं, वे उससे भी प्राचीन हैं। सारांश, इन सब ग्रन्थों के काल का निर्णय इस प्रकार हो चुका है कि ऋग्वेद सन ईसवी से लगभग १५०० वर्ष पहले का है। यज्ञ-याग आदि विषयक ब्राह्मण ग्रन्थ सन् ईपवी से लगभग २५०० वर्ष पहले के हैं। और छांदोग्य आदि ज्ञान-प्रघान उपनिषद सन ईस्वी से लगभग १६०० वर्ष पुराने हैं। अब यथार्थ में वे बातें अवशिष्ट नहीं रह जाती, जिनके कारण पश्चिमी पण्डित लोग भागवतधर्म के उदयकाल को इस ओर इटा लाने का यत्न किया करते हैं। और श्रीकृष्ण तथा भागवतधर्म को, गाय और बछड़े की नैसर्गिक जोड़ी के समान, एक ही कालरज्जु से बाँधने में कोई भय भी नहीं देख पड़ता; एवं फिर बौद्ध अन्धकारों द्वारा वर्णित तथा अन्य ऐतिहासिक स्थिति से मी ठीक ठीक मेल हो जाता है। इसी समय वैदिक काल की समाप्ति हुई और सूत्र तथा स्मृति-काल का प्रारम्भ हुआ है। उक्त कालगणना से यह बात स्पष्टतया विदित हो जाती है, कि भागवतधर्म का उदय ईसा के लगभग १४०० वर्ष पहने, अर्थात युद्ध के लगभग सात आठ सौ वर्ष पहले हुआ है। यह काल वहुत प्राचीन है; तथापि यह ऊपर बतला चुके हैं, कि ब्राह्मणग्रंथों में वर्णित कर्ममार्ग इससे भी अधिक प्राचीन है और उपनिषदों • वेदांगज्योतिष का काल-विषयक विवचन हमारे Orion (औरायन) नामक अंग्रेज़ी ग्रंथ में तथा प. वा. शंकर वालकृग दीक्षित के "भारतीय ज्यं निःशास्त्र का इनिहाम" नामक मराठी ग्रंप (पृ. ८७-९४ तथा १२७-२३९) में किया गया है। उसमें इस वान का भी विचार किया गया है, कि उदगयन से वैदिक ग्रन्थों का कौन सा काल निश्चित किया जा सकता है।
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