गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । भक्ति के साथ अन्य सब धर्मागों की एकवाक्यता करना ही कुछ भागवतधर्म की प्रधान विशेपता नहीं है । यह नहीं कि भक्ति के धर्मतत्त्व को पहले पहल भाग- वतधर्म ही ने प्रवृत्त किया हो। अपर दिये हुए मैन्युपनिषद् (७.७) के वाक्यों से यह बात प्रगट है, कि रुद्र की या विष्णु के किसी न किसी स्वरूप की भक्ति, भागवतधर्म का उदय होने के पहले ही, जारी हो चुकी थी; और यह भावना भी पहले ही उत्पन्न हो चुकी थी, कि उपास्य कुछ भी हो वह ब्रह्म ही का प्रतीक अथवा एक प्रकार का रूप है। यह सच है, कि रुद्र आदि उपास्यों के बदले भागवत- धर्म में वासुदेव उपास्य माना गया है। परन्तु गीता तथा नारायणीयोपाख्यान में भी यह कहा है, कि भक्ति चाहे जिसकी की जाय, वह एक भगवान् ही के प्रति हुआ करती है-रुद्र और भगवान् भिन्न भिन्न नहीं है (गी. ६.२३, मभा. शां. ३४१. २०-३६) । अतएव केवल वासुदेव-भक्ति भागवतधर्म का मुख्य लक्षण नहीं मानी जा सकती । जिस सात्वतजाति में भागवतधर्म प्रादुर्भूत हुआ, उस जाति के सात्यकि आदि पुरुष, परम भगवद्भक्त भीष्म और अर्जुन, तथा स्वयं श्रीकृष्ण भी बड़े पराक्रमी एवं दूसरों से पराक्रम के कार्य करानेवाले हो गये हैं । अतएव अन्य भगवद्भक्तों को उचित है कि वे भी इसी आदर्श को अपने सन्मुख रखें और तत्कालीन प्रचलिन चातुर्वण्र्य के अनुसार युद्ध आदि सब व्यावहारिक कर्म करें -बस, यही मूल भागवतधर्म का मुख्य विषय था। यह घात नहीं, कि भक्ति के तत्व को स्वीकार करके वैराग्ययुक्त बुद्धि से संसार का त्याग करनेवाले पुरुष उस समय बिलकुल ही न होंगे । परन्तु, यह कुछ सात्वतों के या श्रीकृष्ण के भागवतधर्म का मुख्य तत्व नहीं है। श्रीकृष्णजी के उपदेश का सार यही है, कि भक्ति से परमेश्वर का ज्ञान हो जाने पर भगवद्भक्त को परमेश्वर के समान जगत् के धारण-पोषण के लिये सदा यत्न करते रहना चाहिये । उपनिषत्काल में जनक आदिकों ने ही यह निश्चित कर दिया था, कि ब्रह्मज्ञानी पुरुष के लिये भी निष्काम कर्म करना कोई अनुचित वात नहीं। परन्तु उस समय उसमें भक्ति का समावेश नहीं किया गया था और इसके सिवा, ज्ञानो- तर कर्म करना, अथवा न करना, हर एक की इच्छा पर अवलंबित था अर्थात् चैक- ल्पिक समझा जाता था (वेसू. ३. ४. १५) । वैदिक धर्म के इतिहास में भागवत धर्म ने जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण और स्मार्तधर्म से विभिन्न कार्य किया, वह यह कि उस (भागवतधर्म) ने कुछ कदम आगे बढ़ कर केवल निवृत्ति की अपेक्षा निष्काम कर्म-प्रधान प्रवृत्तिमार्ग (नैष्कर्म्य) को अधिक श्रेयस्कर ठहराया, और केवल ज्ञान ही से नहीं किन्तु भक्ति से भी कर्म का सचित मेल कर दिया । इस धर्म के मूल प्रवर्तक नर और नारायणं ऋषि भी इसी प्रकार सब काम निष्काम बुद्धि से किया करते थे, और महाभारत (उद्यो. ४८. २१, २२) में कहा है कि सब लोगों को उनके समान कर्म करना ही उचित है । नारायणीय आख्यान में तो भागवतधर्म का यह लक्षण स्पष्ट बतलाया है कि "प्रवृत्तिलक्षणश्चैव धर्मों
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